मानसून असफल होने के कारण, तमिलनाडु की सित्तिलिंगी घाटी के लम्बाड़ी आदिवासियों को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया, लेकिन महिलाओं द्वारा पारम्परिक कढ़ाई के पुनरुद्धार से घरेलु आय में वृद्धि हुई और पलायन रुका
कशीदाकारी
करने के साथ-साथ,
सुनीता अपने भतीजियों और भतीजों के अलावा, अपने
बच्चों पर नज़र रख रही थी। बच्चे सित्तिलिंगी थांडा में छप्पर की छत वाले झोपड़े
के पास खेल रहे थे। थांडा कभी खानाबदोश रहे लम्बाड़ी आदिवासियों की एक बस्ती है।
सित्तिलिंगी थांडा, धर्मपुरी जिले की सित्तिलिंगी घाटी में है, जिसे ‘बहु-विकास गरीबी सूचकांक’ सम्बन्धी सूची में तमिलनाडु के जिलों में सबसे नीचे रखा गया है। मॉनसून की विफलताओं के कारण, लम्बाड़ी, जो कभी स्थानीय स्तर पर खेती करके भोजन और पोषण के मामले में एक टिकाऊ जीवन जी रहे थे, भी विकास में पिछड़ गए।
लम्बाड़ी
महिलाओं की प्रसिद्ध कशीदाकारी के पुनरुद्धार की बदौलत, न सिर्फ शिल्प,
बल्कि आजीविकाओं का भी बचना सुनिश्चित हुआ, जिससे
परिवारों को काम की तलाश में पलायन करने की बजाए, अपने
गांवों में ही रुके रहने के लिए प्रभावी मदद मिली|
लम्बाड़ी कशीदाकारी
परंपरागत रूप से, लम्बाड़ी एक खानाबदोश जनजाति थी। स्वास्थ्य सेवा और सित्तिलिंगी घाटी के समग्र विकास के लिए काम करने वाले एक ग्रामीण हॉस्पिटल, ट्राइबल हेल्थ इनिशिएटिव (THI) के संस्थापक चिकित्सकों में से एक, ललिता रेजी के अनुसार, लम्बाड़ी अफगानिस्तान से गुजरात और राजस्थान आए और फिर मुगल सेना के साथ दक्षिण की ओर पलायन कर गए।
परंपरागत रूप से, शीशे की जटिल कारीगरी और बेहतरीन कशीदाकारी लम्बाड़ी महिलाओं के कपड़ों की पहचान थी। रेजी ने VillageSquare.in को बताया – “वे युवा लड़कियों के रूप में शिल्प सीखती हैं, ताकि वे अपने खुद के कपड़ों पर कढ़ाई कर सकें। समय के साथ, उन्होंने अपने पारम्परिक कपड़े पहनना बंद कर दिया, और शिल्प भी ख़त्म हो गया।”
शिल्प
पुनरुद्धार
THI की शिल्प पहल के अंतर्गत, कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने, जिन्होंने यह शिल्प अपनी दादियों से सीखा था, युवा महिलाओं को सिखाना शुरू कर दिया| पुनरुद्धार की प्रक्रिया के शुरू होने के समय, यानि 2006 से ही कढ़ाई का काम कर रही, 33 वर्षीय उमा कहती हैं – “हमारे थांडा की बुजुर्ग महिलाओं, नीला, गम्मी और जुम्मा, ने हमें कढ़ाई करना सिखाया।”
इच्छुक
महिलाओं और किशोरियों ने 10
दिनों तक प्रशिक्षण लिया। उमा कहती हैं – “पहले हमने कपड़े के टुकड़ों पर कढ़ाई करना सीखा और उसके बाद पोशाकों पर
काम करना शुरू किया।” जरूरत के अनुसार, महिलाओं के लिए प्रशिक्षण या रिफ्रेशर सत्र आयोजित किए जाते हैं।
महिलाएं अपने कौशल पर और परंपरा को बनाए रखने में गर्व महसूस करती हैं। उमा
ने बताया – “हमें देखकर दूसरे गांवों की महिलाएं
कढ़ाई करने की कोशिश करती हैं। लेकिन यह कौशल जन्मजात है और हम और हमारे बच्चे इसे
आसानी से और इतनी अच्छी तरह से करते हैं, कि कभी-कभी ग्राहक
हमसे पूछते हैं कि क्या यह मशीन की कढ़ाई है।”
शिल्प
संस्था
कशीदाकारी के पुनरुद्धार के एक प्रयास के रूप में, लम्बाड़ी महिलाओं ने एक शिल्प संघ का गठन किया और इसका नाम ‘पोरगई’ रखने का फैसला किया। उमा ने VillageSquare.in को बताया – “हमारी लम्बाड़ी बोली में, पोरगई का मतलब खुशी और गर्व है।”
पोरगई
को 2009 में एक संस्था के रूप में पंजीकृत कराया गया। ललिता रेजी के अनुसार –
जिन्हें उनके नाम के अंतिम अक्षर ‘ता’ के
नाम से संबोधित किया जाता है – हालांकि कर्नाटक और आंध्र में समूह हैं, लेकिन तमिलनाडु में पोरगई एकमात्र समूह है, जो शिल्प
का काम करता है।
घाटी
के मेल थांडा, कीझ थांडा, ए के थांडा और सित्तिलिंगी थांडा के 300
परिवारों में से लगभग 60 महिलाएं पोरगई की
शुरुआत से ही नियमित रूप से शिल्प का काम करती हैं, जबकि
युवा महिलाएं इसे सीखने में रुचि दिखा रही हैं।
शिल्प
का मुद्रीकरण
छोटे
उत्पादों से शुरू करके,
महिलाएं अब पोशाकों, घर के सामान और बटुए,
पर्स और बैग जैसी वस्तुओं पर कढ़ाई करने लगी हैं। कपड़े के रद्दी टुकड़ों
से वे कई प्रकार के छोटे मोटे गहने बनाती हैं।
आसान
और पूरे उत्पादन की सुविधा प्रदान करने के लिए, संघ ने एक सिलाई की इकाई भी शुरू
की है। उमा की माँ बिना, जो कढ़ाई करती थी और प्रदर्शनियों
में भाग लेती थी, उन्होंने सिलाई सीखी और अब पोरगई में कपड़े
सीलती हैं।
वे
नियमित रूप से शिल्प प्रदर्शनियों के माध्यम से दक्षिणी राज्यों में अपना सामान
बेचती हैं। उमा ने बताया –
“प्रदर्शनियों में हमारे भाग लेना शुरू करने से पहले, ‘ता’ हमारे द्वारा कढ़ाई किए गए कपड़ों को बेचती थी,
उन्हें बिलकुल इस तरह दिखाते हुए, जैसे एक
सेल्समेन दिखाता है।”
THI
अस्पताल में इंटर्नशिप के लिए आने वाले युवा चिकित्सकों के माध्यम
से, पोरगई उत्पादों के बारे में जानकारी जुबानी तौर पर फैल
गई है। टाइटन के कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) विंग के
सहयोग से 2016 में बनी नई इमारत में पोरगई को अपने उत्पादों
को प्रदर्शित करने के लिए एक शोरूम बनाने के लिए सहयोग दिया। उन्होंने अपने
उत्पादों को अपने ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से बेचना भी शुरू कर दिया है।
पलायन
में कमी
ज्यादातर
महिलाएं लगभग 5,000
रुपये महीना कमाती हैं। काम के इस अवसर ने लम्बाड़ीयों के पलायन को
काफी कम कर दिया है। जिनके पास जमीन है, उनके पास तीन एकड़
से कम के भूखंड हैं। मानसून की अनिश्चितता के कारण, खेती
आजीविका का टिकाऊ साधन नहीं रही, जिसकारण ग्रामीण पलायन के
लिए मजबूर हो गए।
सुनीता ने VillageSquare.in को बताया – ‘यदि यह कढ़ाई का काम नहीं होता, तो मैं तिरूपुर या चेन्नई में एक मजदूर के रूप में काम कर रही होती।’ रेजी के अनुसार, ज्यादातर पुरुष और उनके साथ जाने वाली महिलाएं निर्माण कार्यों में मजदूरी करते हैं।
रेजी
के अनुसार – “इन के साथ 25 साल तक काम करने के बाद, मैं कह सकती हूं कि पोरगई ने कशीदाकारी करने वाली 60 महिलाओं में से कम से कम 45 महिलाओं के परिवारों को
अपने थांडा में रुके रहने में मदद की है।”
बलीमशा, जो तिरुप्पूर
और उसके बाद कोयम्बटूर में काम करते थे, चार साल पहले पोरगई
में एक मास्टर के रूप में नौकरी मिलने पर सित्तिलिंगी लौट आए। वह महिलाओं को
टेलरिंग में भी प्रशिक्षित करते हैं। उनकी पत्नी संगीता भी पोरगई का एक हिस्सा
हैं। उन्होंने कहा – “मैं वापस आ गया हूं क्योंकि यह मेरा
मूल घर है; और मैं परिवार के बीच रह सकता हूं।”
क्योंकि
पोरगई जैविक कपास से कढ़ाई वाले वस्त्र बनाती है, इसलिए वे
सित्तिलिंगी घाटी में उगाए गई जैविक कपास खरीदते हैं और उसे डिंडीगुल के पास
गांधीग्राम में भेजते हैं, जहां इसे हाथ से काता जाता है,
और प्राकृतिक रंगों में रंगा जाता है। इस कारण पलायन करने वाले युवा
भी प्रोत्साहित हुए, और बारिश होने पर वापस आकर कपास की खेती
करते हैं।
आर्थिक और सामाजिक लाभ
कशीदाकारी, महिलाओं को घर से काम करने का और
अपनी सुविधा के अनुसार समय में काम करने का लचीलापन प्रदान करती है। उनमें से
अधिकांश रिश्तेदार और पड़ोसी होने के नाते, वे जरूरत पड़ने
पर एक दूसरे का सहयोग करते हैं। माहेश्वरी कहती हैं – “यदि
किसी काम को तत्काल पूरा करने की जरूरत है, और सम्बंधित
व्यक्ति किसी विशेष कारण से पिछड़ रहा है, तो हम काम को आपस
में बाँट लेते हैं और काम पूरा करते हैं।”
महिलाएं
बताती हैं कि साथ काम करने से उनमें पारिवारिक और सामाजिक तालमेल बना रहता है।
रेजी ने बताया –
“उनमें से कुछ काम के लिए पलायन के समय बच्चों को उनके दादा-दादी के
पास छोड़ देते थे। अब हमें उन सामाजिक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता, जिनका सामना हमें तब करना पड़ता था जब काम के कारण परिवार अलग हो जाते थे।”
महिलाएं अपनी आमदनी का इस्तेमाल अपने बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य जरूरतों और उन जरूरी घरेलू सामानों के लिए करती
हैं, जिनसे उन्हें कढ़ाई करने के लिए अधिक समय मिले।
रमा ने रेजी के बच्चों को अपने थांडा से थोड़ी दूर, एक वैकल्पिक पाठ्यक्रम वाले स्कूल में जाते देखा। अपनी
बेटी को उसी स्कूल में भेजने की जोरदार इच्छा के कारण, उन्होंने
पोरगई के काम से कमाए गए पैसे से अपनी बेटी को स्कूल छोड़ कर आने के लिए एक
दोपहिया वाहन खरीदा और मासिक खर्च का भुगतान करती हैं।
उनके काम ने महिलाओं के आत्मविश्वास को भी बढ़ाया है। वे अपने काम में
गरिमा पाती हैं। वे शिल्प प्रदर्शनियों के लिए यात्रा करती हैं और वहां अपने बूथ
संभालती हैं। ग्राहकों की पसंद को समझते हुए, वे रंगों और डिजाइनों के बारे में निर्णय लेने में सक्षम हैं। और वे खुश
हैं कि वे लाभ कमा पा रही हैं।
जेन्सी सैमुअल एक सिविल इंजीनियर और चेन्नई स्थित एक
पत्रकार है। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?