1971 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान से विस्थापन की परवाह किए बिना और अब निर्दयी थार रेगिस्तान के बीकानेर जिले में रहने वाली महिलाओं ने, गरिमापूर्ण जीवन यापन के लिए पारम्परिक कशीदाकारी के अपने कौशल का उपयोग किया
राजस्थान के बीकानेर जिले के कोलायत प्रशासनिक
ब्लॉक के डंडकला गाँव की महिलाएँ कुछ हट कर हैं। हालाँकि वे पाकिस्तान के सिंध
प्रांत के उमरकोट जिले से आई शरणार्थी हैं, लेकिन उन्होंने अपने
पारम्परिक कशीदाकारी-कौशल को अपनाकर विस्थापन से संघर्ष किया है, जिससे वे अपने परिवारों की मुख्य पालन-पोषण करने वाली बन गई हैं।
कठोर, शुष्क और खिसकते रेत के
टीलों एवं दोनों तरफ के चरम तापमान वाले, थार रेगिस्तान में
बीकानेर शहर से 140 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, डंडकला में ग्रामीण महिलाओं का जीवन किसी भी तरह से आसान नहीं है। लेकिन
यह सब महिला कारीगरों को सम्मान के साथ जीवन यापन करने से नहीं रोक पाया।
वर्ष 1988 में यहाँ आकर बसने से पहले, ये ग्रामीण बाड़मेर और जैसलमेर में लगभग 17 वर्षों तक शरणार्थी शिविरों में रहे थे। इन शिविरों में पाकिस्तान से निकाले गए लाखों लोग थे, जो 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय आस-पास के नजदीकी राज्यों में भाग आए थे। राजस्थान सरकार ने उस समय इन निष्कासित लोगों को भूमि आवंटित की थी।
1987 में, पश्चिमी राजस्थान ने सदी का सबसे बुरा सूखा झेला और बीकानेर सबसे अधिक प्रभावित जिलों में से एक था। भोजन, पानी और चारे की कमी ने हजारों परिवारों को उजाड़ दिया और लगभग आधे पशुओं को ख़त्म कर दिया। इन चरम स्थितियों में, ग्रामीणों ने या तो शहरों को पलायन किया या सड़क निर्माण स्थलों पर मामूली कमाई की।
कलात्मक
विरासत
पारो बाई (52) ने VillageSquare.in को बताया – “जब मेरे पति को डंडकला में 25 बीघा (लगभग 15 एकड़) जमीन आवंटित की गई, तब हम बेहद गरीबी में जी रहे थे। फिर जब हम बाड़मेर के शिविर से गांव में बसने के लिए पहली बार आए, तो हमें यह देख कर सदमा लगा कि यह एकदम सूखा इलाका है, जहाँ पेड़, झाड़ियां, छाया या पानी नहीं था।
गाँव के दूसरे 250 परिवारों की तरह, हमारे पास उस बंजर भूमि पर खेती करने के अलावा कोई चारा नहीं था, जिसपर पहले कभी खेती नहीं की गई थी। 1987 के सूखे ने हमारी समस्याओं को और बढ़ा दिया। हमें एक वक्त का खाना मिलना भी मुश्किल था।
यह हालात इतने दयनीय थे कि हम महीनों तक स्नान नहीं कर पाए थे। मेरा बेटा और बेटियां जुओं से भरे हुए थे और उनमें से बुरी तरह बदबू आती थी। उस भयानक स्थिति में, आजीविका कमाने के लिए, अपने छोटे बच्चों को गोद में उठाकर, मैं अपने पति के साथ, जहाँ भी ठेकेदार हमें सड़क निर्माण के लिए ले जाता, जाती थी। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त से आई मेरे जैसी ज्यादातर महिलाओं के पास एकमात्र कौशल है जो विशेष प्रकार का था।”
पारो बाई ‘कशीदे’ का जिक्र कर रही थी, जो
एक खास तरह की कशीदाकारी है, जिसमें टांका भरत, सूफ, पक्का, कांबिरी, खरक, कच्छ और सिंधी जैसी कई शैलियाँ शामिल हैं। वह
कहती हैं – “बाड़मेर के हमारे कैंप में और यहाँ गाँव
में, बिचौलियों ने हमारे हालात का फायदा उठाया, क्योंकि हम ज्यादातर अनपढ़, असंगठित थे और हमें पैसे
की जरूरत थी। हमारी बेहद खूबसूरत हाथ की कढ़ाई के लिए हमें थोड़े से पैसे देकर,
बहुत लम्बे समय तक बिचौलिए हमारा शोषण करते रहे।”
पास ही बैठी संतोष, जो महिला कारीगरों के बीच काम कर रही थी, कहती हैं – “गाँव इंदिरा गांधी नहर के कमांड क्षेत्र
में आता है और 1988 में उरमूल ट्रस्ट (राजस्थान
में कार्यरत एक गैर सरकारी, गैर लाभकारी संगठन) ने इन
क्षेत्रों में अपनी गतिविधियों का विस्तार किया। उरमूल सीमान्त समिति 113 गांवों में काम करने के लिए, कोलायत ब्लॉक के बज्जू
में गठित की गई थी।
ऐतिहासिक
क्षण
पारो बाई ने बताया – “पहले एक बार संजय घोष, जिनके
साथ उरमूल के कार्यकर्ता थे, ने मुझे सड़क निर्माण के काम
में मेहनत करते देखा था। उन्होंने मेरे बेटे और बेटियों को चिलचिलाती धूप में धूल,
गर्मी, शोर और कई खतरों के बीच सोते देखा था।
उसके बाद जब उरमूल के स्वास्थ्य कार्यकर्ता तपेदिक के रोगियों के इलाज के लिए गाँव
में आए, तो मैंने उन्हें कशीदे का काम दिखाया। उनका मेरी
झोपड़ी में आना मेरे जीवन की ऐतिहासिक घटना बन गई। उन्होंने सकारात्मक कदम उठाया
और कशीदाकारी आधारित आय-सृजन परियोजना शुरू की।”
उरमूल ने, महिलाओं के पारम्परिक कौशल में सुधार में सहयोग करके, तकनीकी सहायता प्रदान करके और उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों
से जोड़कर उनकी मदद की। इस गैर-लाभकारी संगठन (उरमूल) ने उन्हें शोषणकारी
बिचौलियों के चंगुल से भी मुक्त कराया। बीकानेर जिले के कोलायत और पुगल ब्लॉक के
डंडकलां, गोकुल, भलोरी बिजेरी, बीकेंद्री और दूसरे गांवों की महिला कारीगरों ने स्व-सहायता समूहों
(एसएचजी) के रूप में संगठित होना शुरू किया और कशीदाकारी (कढ़ाई) में अपने कौशल को
और बढ़ाया।
संतोष ने VillageSquare.in को बताया – “लैला तैयबजी जैसे प्रसिद्ध डिजाइनरों और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन (NID) एवं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी (NIFT) के सनातकों ने महिलाओं को अपने कौशल को सुधारने में मदद के लिए निरंतर उनका दिशानिर्देशन किया। अब ये महिलाएं 3,500 से 6,000 रुपये महीना कमाती हैं।”
पारो बाई ने बताया – “कशीदा हमारा खेत भी है और फसल भी। जब मैंने
उरमूल के साथ काम करना शुरू किया, तो मेरे पति ने बहुत सारी
बाधाएँ खड़ी कीं, लेकिन जब उन्होंने देखा कि मेरी कमाई
परिवार के लिए मददगार है, तो उन्होंने विरोध बंद कर दिया।
पहले हम अपने और अपने बच्चों के लिए एक वक्त का खाना नहीं जुटा पा रहे थे, लेकिन अब ऐसी कोई कमी नहीं है।”
पलायन रुका
पारो बाई एक स्व-सहायता समूह की संस्थापक
सदस्य हैं, और उन्होंने अपने गाँव की 40
से 50 महिलाओं को हर महीने 3,000 से 5,000 रुपये कमाने में मदद की है। उन्होंने अपनी
बेटियों, मंगुरी और माथरी को प्रशिक्षण दिया था, जो अब शादीशुदा हैं और बाड़मेर जिले में रहती हैं। उन्होंने अपने गांवों
की दूसरी महिलाओं को प्रशिक्षित किया है। कशीदा के काम में लगे होने के कारण,
महिला कारीगरों को शहरों में पलायन करने की बजाय, अपने गांवों में ही बने रहने में मदद मिलती है।
ज्यादातर काम घरों में ही किया जाता है, न कि नियंत्रित परिस्थितियों में। उनके घर ही उनके
कार्यस्थल हैं और वे गरिमा के साथ कमाती हैं। क्षमता निर्माण सम्बन्धी प्रशिक्षण
और उरमूल कार्यकर्ताओं, डिजाइनरों और खरीदारों के साथ नियमित
चर्चाएं, उन्हें दुनिया को एक व्यापक नजरिये से देखने में
सक्षम बनाती हैं।
पारो बाई कढ़ाई का काम, अपनी बहुओं, भतीजियों और गाँव की दूसरी महिलाओं के साथ मिलकर करती हैं, जो रंगसूत्र केंद्र का काम करता है। एनआईएफटी (NIFT) के सनातक, शुभम शर्मा सेन ने ‘रंगसूत्र’ के बारे में VillageSquare.in को बताया – “यह एक कंपनी है, जिसकी स्थापना 12 साल पहले सामाजिक कार्यकर्ता से उद्यमी बनी, शुमिता घोष ने की थी। इसे कारीगरों को नियमित काम और बाजार तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था। कारीगर कंपनी में सह-स्वामी और शेयरधारक हैं। वे निदेशक बोर्ड का हिस्सा हैं और लागत, योजना, उत्पादन और मजदूरी सम्बन्धी फैसलों में उनकी भूमिका है।”
शर्मा सेन के अनुसार – “पारो बाई कंपनी में एक शेयरधारक है। राजस्थान, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, असम और पश्चिम बंगाल के 3,500 से अधिक बुनकरों, कशीदाकारी करने वाले और दूसरे कारीगरों ने मिलकर कंपनी बनाई। रंगसूत्र के 70% मालिक-कारीगर महिलाएँ हैं। इससे जो काम और पैसा उन्हें मिलता है, उसके कारण इन महिलाओं की उनके परिवार में राय का महत्त्व बढ़ा है। ये महिलाएं अब अपनी बेटियों को स्कूल भेजना चाहती हैं और कुछ अपने गाँव में समूहों की नेता बन गई हैं, जिससे अन्य महिलाओं को उनके नक्शेकदम पर चलने की प्रेरणा मिली है।
रंगसूत्र अब एक सफल उद्यम है। रंगसूत्र का सबसे बड़ा खरीदार फैब इंडिया (दुकानों की एक लोकप्रिय श्रृंखला) है। यह थोड़ी बहुत मात्रा में फ्रांस, नीदरलैंड और ब्रिटेन को भी निर्यात करता है। वैश्विक तवज्ज़ो का मतलब है कि मौजूदा समूहों की ताकत बढ़ाने और गुणवत्ता को बनाए रखते हुए उनकी क्षमता में वृद्धि की लगातार जरूरत है। कभी व्यक्तिगत दहेज़ के लिए इस्तेमाल होने वाली पारम्परिक कशीदाकारी, अपनी संस्कृतिक पहचान बरक़रार रखते हुए, अब बाजार से जुड़ी है और इसे जीवित रखा गया है।”
तरुण कांति बोस नई दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं।
विचार व्यक्तिगत हैं|
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