मध्य प्रदेश के एक पिछड़े क्षेत्र में, आदिवासी बोलियों में किताबें तैयार करने की एक पहल, आदिवासी बच्चों को न केवल स्कूल में बेहतर सीखने में मदद कर रही है, बल्कि उन्हें उनकी मूल संस्कृति और परंपराओं के साथ जोड़ भी रही है।
शरारतपूर्ण मुस्कराहट के साथ, केवल 12 साल का अर्काट, स्कूल जाने के लिए उत्साहित था, क्योंकि यह
पुस्तकालय का दिन था। उसका स्कूल, मध्य प्रदेश के बालाघाट
जिले का कडला सरकारी प्राथमिक विद्यालय, उस सप्ताह के
पुस्तकालय सत्र का आयोजक था। कुछ ही साल पहले ऐसा नहीं था। पांचवीं कक्षा में पढ़ने
वाले अर्काट को कहानियों से प्यार है, लेकिन उसके स्कूल की
छोटी सी लाइब्रेरी में ज्यादा किताबें नहीं थी।
स्कूल के स्टॉक में ज्यादातर पाठ्यक्रम पुस्तकें थी और कहानियों की ज्यादातर पुस्तकें उसकी रुचि या पढ़ने के स्तर के नहीं थी। अर्काट ने VillageSquare.in को बताया – “मैं नए पुस्तकालय अध्यापकों के आने और किताबें बाँटने की प्रतीक्षा करता हूं, ताकि मुझे पढ़ने के लिए बहुत सी किताबें मिल सकें। मुझे ये किताबें पसंद हैं। ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, जिनमें मेरे जैसे और मेरे दोस्तों जैसे बच्चे हैं।”
भारत में आदिवासी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा पूरी करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक विद्यालयों में आदिवासी बच्चों की स्कूल छोड़ने की 58% की दर, गैर-आदिवासी बच्चों के 37% की तुलना में बहुत अधिक है। हालाँकि वे स्कूलों में ख़राब प्रावधानों और घटिया कामकाज से, अन्य समुदायों के बच्चों के समान ही प्रभावित होते हैं, लेकिन एक महत्वपूर्ण पहलू, जिस पर कम ध्यान दिया गया है, वह है भाषा और सांस्कृतिक का अंतर।
एक भाषाविद और 2011 की यूनेस्को लिंगुआपाक्सर पुरस्कार विजेता, गणेश डेवी कहते हैं, “यदि आप भारत के उन हिस्सों का लेखाजोखा तैयार करते हैं, जहाँ निरक्षरता सबसे ज़्यादा है, तो आप पाएंगे कि यह उन हिस्सों से मेल खाता है जहाँ बच्चों की मातृभाषा आधिकारिक भाषा से भिन्न हैं।” डेवी वडोदरा-स्थित भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन ट्रस्ट’ के संस्थापक हैं।
पिछले कुछ सालों में, ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने, सरकारी स्कूलों में जनजातीय भाषाओं को एकीकृत करने की कोशिश की है,
लेकिन दूसरे ज्यादातर राज्य, जहां मूल निवासी
लोग बड़ी संख्या में रहते हैं, वे इस दिशा में कदम उठाने से
हिचकते हैं।
मध्य भारत में मध्य प्रदेश में, सफल हस्तक्षेप के माध्यम से, एक
पहल के द्वारा धरातल पर इस हिचक को दूर करने की कोशिश की जा रही है। राज्य में
जनजातीय आबादी 21.1% है, जिसमें 46
मान्यता प्राप्त अनुसूचित जनजातियां हैं और तीन विशेष रूप से कमजोर
जनजातीय समूह (PVTGs) के रूप में चिन्हित जनजातियां हैं।
बालाघाट जिले का बैगा एक ऐसा ही समूह है। वे गोंड जैसे अन्य जनजातीय समुदायों के
साथ रहते हैं, जिससे अर्काट का संबंध है।
अर्काट का गांव, कडला मोटे तौर पर ब्लॉक के ज्यादातर गाँवों जैसा ही
है। 110 परिवारों और 635 लोगों के घर,
कडला में गोंड जनजातियों का वर्चस्व है, लेकिन
एक छोटी आबादी बैगा और यादव (ओबीसी) समुदाय के लोगों की भी है। कान्हा नेशनल पार्क
के गैर-बफर क्षेत्र में स्थित, ज्यादातर ग्रामीण आजीविका के
लिए जंगल पर निर्भर हैं, या खेतों में काम के लिए पड़ोसी
जिलों में जाते हैं। कुछ लोग चावल की खेती करते हैं, लेकिन
पार्क की निकटता के कारण उनकी आजीविका प्रभावित होती है।
गाँव में 10% से कम युवा हैं, जिन्होंने 10 वीं
कक्षा पास की है, और वे भी ठीक से पढ़ और लिख नहीं सकते।
वैसे भी, माता-पिता स्कूलों के प्रति उदासीन बने रहते हैं और
स्कूली शिक्षा से उनकी उम्मीदें कम होती हैं। जिले के स्कूलों को भी ग्रामीण
स्कूलों वाले ही मुद्दों का सामना करना पड़ता है, जैसे कि
सुविधाओं का अभाव, शिक्षकों को यात्रा में कठिनाई और उचित
प्रशिक्षण की कमी और बच्चों के लिए उपयुक्त पुस्तकों या लिखित सामग्री का अभाव। यह
स्पष्ट है कि अच्छी तरह से सीखने में मदद के लिए, इन बच्चों
के लिए एक अनुकूल शिक्षण वातावरण की जरूरत है।
किताबों के
प्रति प्यार
छोटी किताबों के प्रति बच्चों के प्यार को देखकर, जमीनी हस्तक्षेप से जुड़े कुछ पुस्तकालय-समन्वयकों ने एक पहल की और बच्चों की अपनी भाषाओं में चंद पुस्तकों का अनुवाद किया – रायगढ़ी में, जो एक स्थानीय बोली जिसमें गोंडी की आदिवासी भाषा के साथ हिंदी का मिश्रण है, और बैगा में। धेयानटोला के शिव यादव ने VillageSquare.in को बताया – “मुझे लगा कि उनके लिए इसे समझना आसान होगा, और उनकी प्रतिक्रिया देखकर बहुत खुशी हुई।” शिव यादव ने हाथ से तैयार बच्चों की एक पुस्तक का रायगढ़ी में अनुवाद और चित्रलेखन किया है।
आनंदित बच्चों ने इस प्रयास को अपने स्वयं
के स्कूलों में शुरू किया। पुस्तकों के प्रति प्रेम ने उन्हें ‘पक्का आम’, ‘नाव चली’, ‘हमारी पतंग’ आदि हिंदी कहानियों का रायगढ़ी में
अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया, जिन्हें दूसरे बच्चे बड़े
चाव से पढ़ते हैं। आनंद और शिक्षा (फन एंड लर्न) की यह गतिविधि कई छात्रों द्वारा
लाइब्रेरियन और अध्यापकों के मार्गदर्शन में की जा रही है।
कुकर्रा गाँव में छठी कक्षा की छात्रा, नीतू टांडिया ने VillageSquare.in को बताया – “जब मैं बरखा सीरीज़ की किताबें
पढ़ती थी, तो मैंने पाया कि ये कहानियाँ हमारे आसपास और
रोजमर्रा के जीवन से हैं। मैंने भी अपने विचारों को इकट्ठा करने और उन्हें
कहानियों के रूप में लिखने के बारे में सोचा, ताकि मैं कुछ
कहानियाँ स्वयं अपनी बना सकूं।” उसने अपनी किताबों,
‘नीतू की चाय’ और ‘मैंने
खेला’ का निर्माण और चित्रलेखन किया।
आनंद-घर
शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था, एड एट एक्शन (Aide et Action), टाटा ट्रस्ट्स के साथ साझेदारी में, बालाघाट के आदिवासी बच्चों के साथ मिलकर, गढ़ी, परसामु और जैतपुरी जिलों के कुछ सबसे पिछड़े क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए एक मॉडल तैयार करने के लिए काम कर रही है। उनका मुख्य हस्तक्षेप आनंदघर (पूरक शिक्षण केंद्र) रहा है, जो वर्तमान में 77 प्राथमिक स्कूलों में चल रहा है। अपने नाम के अनुरूप, आनंदघर कक्षा में, गतिविधि आधारित शिक्षण (Activity Based Learning-ABL) पर आधारित पठन-पाठन सहयोग, खेल, कविता, गीत और पठन-पाठन सामग्री के माध्यम से, एक खुशनुमा माहौल बनाने पर जोर देता है।
हालाँकि परियोजना के कार्यकर्ताओं ने
चुनौतीपूर्ण दूरदराज स्थान और भाषा के अंतर के कारण होने वाली कुछ बाधाओं का
अनुमान लगाया था, लेकिन सीखने के बेहतर
परिणाम के प्रयासों में मुख्य खाई के रूप में उन्होंने जो पाया, वह था बच्चों के लिए उपयुक्त, प्रासंगिक पठन-सामग्री
का पूर्ण अभाव।
चलते फिरते
पुस्तकालय
हस्तक्षेप का पुस्तकालय अंग, जिसे योजना के अनुसार शुरू में एक छोटी भूमिका निभानी
थी, को इस स्थिति के अनुकूल बनाया गया था। संगठन को अपने पुस्तकालय
समन्वयकों को प्रशिक्षित करने और प्रासंगिक रूप से उपयुक्त पुस्तकों का चयन करने
के लिए, टाटा ट्रस्ट्स और उनके संसाधन-भागीदार ‘मुसकान’ से सहयोग मिला। दूर दूर तक फैले हुए गाँवों
के लिए, इस परियोजना ने उन मोबाइल पुस्तकालयों वाला मॉडल
अपनाया, जिसमें पुस्तकालय समन्वयक सुबह के समय आनंदघरों का
दौरा करते हैं। वे ध्यान से चुनी हुई बच्चों की 20 पुस्तकों
का बक्सा साथ ले जाते हैं। उनमें से ज्यादातर पढ़ने के स्तर के अनुसार छांटी जाती
हैं, शुरुआती पाठकों के लिए, और उनमें
से बड़ी संख्या में ग्रामीण परिवेश के बच्चे हैं।
जिप वाले बैग से किताबें बांटने के अलावा, लाइब्रेरी-समन्वयक स्कूलों में कई तरह की गतिविधियों
का संचालन करते हैं। इन गतिविधियों में युवा पाठकों के लिए विशेष रूप से तैयार बड़े
आकार की पुस्तकों को जोर से पढ़ने के सत्र, साझा पठन, दो-दो छात्रों द्वारा मिलकर पठन और कहानी सुनाना आदि शामिल हैं।
बच्चे इन सत्रों का भरपूर आनंद लेते हैं, और लाइब्रेरियन के आने का इंतजार करते हैं। स्कूल में
जाने के अलावा, पुस्तकालय-समन्वयक अपनी साइकिल लेकर गांव में
भी जाते हैं, और किसी खास जगह, पुस्तकालय
बना लेते हैं, जहां बच्चे और युवा आकर किताबें जारी करवा
लेते हैं।
नए-नए विचारों को आजमाने के लिए, पुस्तकालय-समन्वयकों के उत्साह के पीछे का मुख्य कारण, टाटा ट्रस्ट्स की एक पहल, ‘पराग’ द्वारा ‘लाइब्रेरी एजुकेटर कोर्स’ से संगठन टीम के चार सदस्यों की सीख है। कहानियों के साथ भूमिका निभाने (रोल-प्ले) जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देकर, उन्होंने कक्षा में अपनी भाषा में अपने विचार व्यक्त करने और बात करने के लिए बच्चों का आत्म-विश्वास बढ़ाया है।
आदिवासी
भाषाओं में किताबें बनाना
अनुसंधान से पता चलता है कि मातृभाषा में पढ़ाई, स्कूलों में बच्चों को अधिक भागीदारी करने और सीख के स्तर को बढ़ाने वाली सीखने की प्रेरणा देने में मदद करती है| यह भी पता चलता है, कि बहुभाषी बच्चे अपने एकल-भाषा वाले साथियों की तुलना में बेहतर वैचारिक-कौशल विकसित करते हैं। प्रोजेक्ट टीम अलग-अलग तरह की गतिविधियों का संचालन करती है, जिससे बच्चे स्कूली भाषा के साथ-साथ, अपनी भाषा में भी बोल और सीख सकें। ये कम लागत वाले, बड़े पैमाने पर लागू किए जाने लायक, सूक्ष्म-नवाचार के कार्य हैं, जो वर्तमान की चुनौतियों से निपटते हैं और सैद्धांतिक रूप से बड़े बदलाव की दिशा में एक कदम बन जाते हैं।
समुदाय के लिए खुले पुस्तकालय सत्रों का
आयोजन, उनकी रुचि बढ़ाने की एक और गतिविधि है।
सप्ताह में एक बार, सभी पुस्तकालय-समन्वयक एक गांव में जुटते
हैं, जहां समन्वयक द्वारा कहानी सुनाने , लोकगीत गाने, लोक कथा सुनाने और पहेलियाँ बुझाने के
लिए प्रोत्साहित किया जाता है। स्कूल में शिक्षा की आवश्यकता, घर पर बच्चों को सहयोग के महत्त्व, और बच्चों की
स्कूल में उपस्थिति एवं गानों को लिखना और पढ़ना आदि सुनिश्चित करने के लिए,
बच्चों के माता-पिता और दादा-दादी को चर्चा के लिए आमंत्रित किया
जाता है।
इस तरह यह गतिविधि, बच्चों की उपस्थिति में सुधार के लिए समुदाय को जुटाने की दिशा में पूरक बन जाती है, जिसके लिए आनंदघर के स्वयंसेवक कार्य करते हैं। बहुत सी महिलाएं बच्चों की सुंदर सचित्र किताबों को देखकर, बच्चों को किताबें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। अर्मी की रहने वाली, अनीता धुर्वे ने VillageSquare.in को बताया – “मैं किताबें पढ़ती हूँ और अपने बच्चों को भी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हूँ, क्योंकि किताबें हमें बहुत कुछ नया ज्ञान देती हैं, जो हमने देखा नहीं होता और हमारी कल्पना को व्यापक बनाती हैं।”
सीखने को
बढ़ावा मिलता है
पिछले कुछ सालों में, बेसलाइन और मिडलाइन सर्वेक्षणों में, वार्षिक शिक्षण आंकलन परीक्षणों से पता लगता है, कि कार्यक्रम का हिस्सा बनने वाले आदिवासी बच्चों के सीखने के स्तर में लगातार वृद्धि हुई है। इलाके के अध्यापकों ने इस पहल के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है और बच्चों की भागीदारी में पुस्तकों की भूमिका का उल्लेख किया है। अर्काट के गर्वित अध्यापक, फूलसिंह मरकाम ने VillageSquare.in को बताया – “वे बहुत शर्मीले थे और शायद ही बोलते थे। अब हम उन्हें अपने साथियों को कहानी पढ़कर सुनाने के लिए आगे बुलाते हैं।”
हालाँकि बहुत से शिक्षा कार्यक्रम, सहायक शिक्षण केंद्रों के माध्यम से बच्चों की मदद कर
रहे हैं, लेकिन जो बात इस कार्यक्रम को अलग करती है, वह है इसके सूक्ष्म नवाचार, जो स्कूल और समुदाय के
बीच सीखने में पुल का काम करते हैं। वर्तमान प्रयास आदिवासी बच्चों को न केवल
स्कूल की भाषा सीखने और उसमें कुशलता के अवसर प्रदान कर रहा है, बल्कि उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति से भी जोड़ रहा है।
बालाघाट में एड एट एक्शन के प्रोग्राम मैनेजर, कॉसमॉस जोसेफ से मिले इनपुट्स के साथ।
अलकनंदा सानप पुणे में सेंटर फॉर डेवलपमेंट रिसर्च
की एक वरिष्ठ शोधकर्ता हैं। इससे पहले, वह टाटा ट्रस्ट्स,
मुंबई में शिक्षा के लिए कार्यक्रम अधिकारी थीं और नेशनल
यूनिवर्सिटी ऑफ़ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन, नई
दिल्ली में शोधकर्ता थीं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?