मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा), जो काम पर आने जाने के लिए अपने परिवार के पुरुषों पर निर्भर थी या रोज कई मील पैदल चलती थी, साइकिल चलाना सीखने के बाद समय की पाबंद और सक्षम हो गई हैं।
जैसे ही घड़ी
में 11
बजे, एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य
कार्यकर्ता (आशा), शशिकला देवी ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र
(पीएचसी) की ओर पैदल चलना शुरू कर दिया। ट्यूशन क्लास ख़त्म करके आए, अपने 16 वर्षीय बेटे को वह छोड़ आने के लिए मना नहीं
सकी। कोई दूसरा विकल्प नहीं होने के कारण, वह धूल भरी सड़कों
पर 8 किलोमीटर दूर PHC के लिए चल पड़ी,
और एक बार फिर उसे काम पर देर से आने के कारण अपमान से गुजरना पड़ा।
शशिकला
देवी बिहार के समस्तीपुर जिले के शिवाजीनगर ब्लॉक में रहती हैं। वह दहियार पंचायत
के एक प्रशासनिक वार्ड की आशा कार्यकर्ता हैं। अपने वार्ड के 1000 से अधिक
निवासियों और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करते
हुए, उन्हें समय-समय पर पीएचसी की यात्रा करनी होती है।
रिंकू
देवी के लिए, हसनपुर की अपनी पीएचसी तक आने जाने का एकमात्र साधन एक लोकल ट्रेन है।
उन्हें हसनपुर के लिए 9 बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए, सुबह 8 बजे तक घर का काम पूरा करना होता है। रेलवे
स्टेशन से पीएचसी तक पहुंचने के लिए, उन्हें 2 किमी पैदल चलना पड़ता है। उन्हें दोपहर 2.30 बजे तक
अपना काम पूरा करना होता है, ताकि दोपहर 3 बजे की वापसी ट्रेन पकड़ सकें, जो उनसे अक्सर छूट
जाती है, और उन्हें शाम 7 बजे की अगली
और अंतिम ट्रेन तक इंतजार करना पड़ता है।
आवागमन
सम्बन्धी बाधाओं का आशाओं के सशक्तीकरण के व्यापक लक्ष्य पर एक बहुआयामी प्रभाव
पड़ता है। अपने कार्य स्थलों तक आसानी से और समय पर पहुँचने में सक्षम बनाने के
उद्देश्य से उन्हें साइकिल चलाना सिखाने का,
उनके जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
आवागमन
सम्बन्धी चुनौती
एक
आशा कार्यकर्ता, ग्रामीण आबादी का वंचित वर्ग, विशेषकर महिलाओं और
बच्चों के लिए, किसी भी स्वास्थ्य संबंधी जरूरत के समय,
पहला संपर्क बिंदु है। आशा कार्यकर्ताओं के पास ओरल रिहाइड्रेशन
सॉल्यूशन (ORS), आयरन-फोलिक एसिड गोलियाँ (IFA), क्लोरोक्वीन, आदि का भी स्टॉक रहता है और उन्हें
बहुत सी दूसरी जिम्मेदारियाँ भी निभानी पड़ती हैं, जिससे उनकी
भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
शशिकला
देवी और रिंकू देवी की कहानियाँ कोई अपवाद नहीं हैं, बल्कि समस्तीपुर में काम करने
वाली 70% से अधिक आशाओं के लिए एक आम बात है। कुछ उन्हें काम
पर छोड़ आने के लिए, अपने बेटों या पति का इंतजार करती हैं या
रोज 15 कि.मी. से अधिक पैदल चलने के लिए मजबूर हो जाती हैं।
कई
लोगों के लिए सार्वजनिक परिवहन पर निर्भरता एक विकल्प नहीं है, क्योंकि
ग्रामीण बिहार में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था सीमित है और विश्वसनीय नहीं है।
कुछेक के लिए भले ही परिवहन सेवाएं सुलभ हों, लेकिन महिलाओं
की सुरक्षा एक चिंता का कारण है। आशा कार्यकर्ताएं अक्सर शिकायत करती हैं कि आने
जाने की बुनियादी जरूरत के लिए दूसरों पर निर्भरता के कारण, न
केवल उनके आत्म-सम्मान, बल्कि उनके काम की गुणवत्ता और आगे
बढ़ने के अवसरों पर भी प्रभाव पड़ता है।
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) के पूर्व छात्रों द्वारा स्थापित एक जमीनी स्तर का सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठन, ‘इन्नोवेटर्स इन हेल्थ’ (IIH), देश को तपेदिक-मुक्त बनाने के लिए भारत सरकार की पहल, ‘राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम’ को मजबूत बनाने के लिए आशा कार्यकर्ताओं के साथ काम करता है।
आशा कार्यकर्ताओं
की दुर्दशा के नजदीकी गवाह होने के नाते, IIH टीम ने उन्हें सही मायने में सशक्त बनाने के लिए, आवागमन
की इन बाधाओं से निपटने का निर्णय लिया। टीम आशाओं को साइकिल चलाने का प्रशिक्षण
देकर, उनकी आवागमन की आजादी स्थापित करने की कोशिश कर रही
है।
आवागमन
और सशक्तिकरण
1800
की सदी के अंत में अपने आविष्कार के समय से ही साइकिल, महिलाओं के सशक्तिकरण से जुड़ी रही है। ग्रामीण बिहार में, साइकिल को पुरुषों का क्षेत्र माना जाता है, और एक
अधेड़ महिला का साइकिल चलाते देखना अकल्पनीय है| महिलाएँ भी
इसे अव्यवहारिक समझती थी।
बिहार
में, ‘मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना’, जो स्कूली
छात्राओं के लिए थी, ने लड़कियों द्वारा साइकिल का उपयोग करने
की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस तरह IIH टीम ने आशा
कार्यकर्ताओं को साइकिल चलाना सिखाने के लिए, इन युवा
लड़कियों की मदद लेने का फैसला किया। इससे न केवल प्रशिक्षण के दौरान आशाओं के लिए
आराम सुनिश्चित होता है, बल्कि इस क्रांति के आपसी पारगमन को
भी बढ़ावा देता है।
चिंता
निवारण
एक
बैठक में IIH ने 22 आशाओं को आमंत्रित किया, जिनमें से 17 आई। बैठक की शुरुआत, आवागमन सम्बन्धी चुनौतियों के बारे अपने अनुभव साझा करने के साथ की गई। यह
चर्चा समस्या के समाधान के लिए विचारों तक पहुंची और IIH टीम
ने साइकिल प्रशिक्षण का प्रस्ताव रखा। सभी के चेहरे पर संकोचपूर्ण मुस्कान के
साथ-साथ, अविश्वास भी था।
मुखर
महिलाओं ने साड़ी पहनकर साइकिल सीखने की सम्भावना पर सवाल उठाया, क्योंकि इससे
पैडल चलाना मुश्किल हो सकता है। दूसरी चिंताओं में से कुछ थी – वे कहाँ सीखेंगी,
उन्हें कौन सिखाएगा, यदि IIH उन्हें ;सीखने के लिए साइकिल देगा, तो महिलाओं को साइकिल सीखते देख पुरुषों की क्या प्रतिक्रिया होगी,
इत्यादि।
IIH टीम और आशा कार्यकर्ताओं ने मिलकर इन सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की और अंत में फैसला किया, कि किशोर लड़कियां महिलाओं को प्रशिक्षण दे सकती हैं। लड़कियाँ दोपहर के समय आशाओं को सिखाएंगी, जब उनका काम लगभग पूरा हो जाता है और दूसरे ग्रामवासी आराम करते हैं। टीम ने अभ्यास के लिए ऐसे दो स्थानों को चुना, जहाँ पुरुष आमतौर पर नहीं आते।
गरीब
परिवारों की उन लड़कियों की मदद ली गई,
जिन्होंने अपने आप साइकिल चलाना सीखा था और उनके पास सरकार द्वारा
प्रदान की गई साइकिल हैं। लड़कियाँ स्कूल के बाद एक घंटे के आसपास लगाती थी और उनके
इस प्रयास के लिए उन्हें मुआवजा दिया गया। प्रत्येक लड़की ने दो आशाओं को
प्रशिक्षित किया।
सड़क
पर ले जाना
बैठक
में भाग लेने वाली 17
आशाओं में से, 14 ने प्रशिक्षण के लिए
स्वीकृति दी और उनमें से 11 प्रशिक्षण के पहले दिन आई। पहले
दिन की शुरुआत कुछ चुनौतियों से हुई, जिसकी वजह से टीम को
प्रशिक्षण का स्थान बदलना पड़ा, लेकिन आखिरकार यह शुरुआत सफल
रही।
IIH
समस्तीपुर के चार प्रशासनिक खंडों में यह प्रशिक्षण आयोजित कर रहा
है, जिसके अंतर्गत 800 सक्रिय आशा काम
करती हैं। फरवरी 2020 से शुरू होकर, IIH ने 143 आशाओं का नामांकन किया, जिनमें से 103 ने सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा कर
लिया है।
IIH
टीम उन मुद्दों को लेकर चिंतित थी, कि जब ये
महिलाएँ प्रशिक्षण मैदान के एकांत से निकलकर सड़कों पर जाएंगी, जहाँ दूसरी गाड़ियाँ भी चलती हैं, तो सामने आ सकते
हैं। लेकिन आशाओं में से 11 ने आत्मविश्वास से सडकों पर
साइकिल चलाना शुरू कर दिया।
सकारात्मक
प्रभाव
आशाओं
ने साइकिल चलाना सीखकर,
अपने घर में पहले से ही उपलब्ध साइकिल इस्तेमाल करने लगी। अपना
परिवार चलाने के लिए एकमात्र जिम्मेदार, एक विधवा के रूप में,
शिवाजीनगर की उर्मिला देवी अक्सर साइकिल चलाना सीखना चाहती थी,
क्योंकि इससे उनकी यात्रा के खर्च में कमी होगी।
उर्मिला
देवी कहती हैं –
“जब से मैंने साइकिल का इस्तेमाल शुरू किया है, मैं काफी पैसे बचाती रही हूं।” अमृता देवी के लिए
लॉकडाउन के दौरान, साइकिल एक जीवन-रक्षक साबित हुई, क्योंकि परिवहन के सभी साधन बंद हो गए थे।
सरायरंजन
ब्लॉक की एक आशा,
सोनिया देवी ने अपनी बचत से एक स्कूटर खरीदा। सोनिया की स्कूटर की
सवारी करने की बहुत इच्छा थी, लेकिन वह उसे सिखाने के लिए
अपने परिवार को मना नहीं पाई। एक फील्ड-कोऑर्डिनेटर, अंजू ने
प्रशिक्षण प्रदान करके, उनके सपने को पूरा करने में मदद की।
सोनिया
देवी ने बताया –
“पीएचसी जाने के लिए मुझे अपने पति का इंतजार करने की ज़रूरत
नहीं है, और जो काम करने में चार घंटे लगते थे, अब केवल दो घंटे लगते हैं। मेरी पर्यवेक्षक कहती रहती हैं, कि दूसरों को मेरे काम और समय की पाबंदी से सीखना चाहिए।” इस प्रयास को शुरू करने वाली IIH टीम को उम्मीद है
कि अपने काम को प्रभावी रूप से कर सकने के लिए, दूसरी आशाएँ
भी साइकिल चलाना सीखेंगी।
स्मृति
रिद्धि ने MAHE, मणिपाल से
दंत चिकित्सा में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। वह इन्नोवेटर्स इन हेल्थ (IIH),
इंडिया की एक प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप में, निजी
क्षेत्र में टीबी रोगियों की देखभाल की गुणवत्ता में सुधार के प्रयासों का नेतृत्व
कर रही हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?