ओडिशा के मलकानगिरी जिले में बच्चों की बड़ी संख्या में मृत्यु के लिए, आधिकारिक तौर पर जापानी इंसेफेलाइटिस (दिमागी बुखार) और मलेरिया को जिम्मेदार ठहराया गया है, लेकिन ग्रामवासियों और नागरिक समाज संगठनों का कहना है, कि इन टाली जा सकने वाली मौतों में कुपोषण का योगदान दिया है
अपने स्पष्ट दिखाई दे रहे कुपोषित एक वर्षीय बेटे आदित्य को पकड़े हुए, मलकानगिरी के पलकोंडा गांव की चुमुदी मडकामी कहती हैं –
“उल्टी और अपनी तीन वर्षीय बेटी, जूली के
लक्षणों को देखकर, जिसने उसे बेचैन कर दिया था, हम उसे मलकानगिरी के जिला मुख्यालय अस्पताल ले गए। हम नहीं जानते थे कि यह
गाँव से उसकी अंतिम विदाई थी। उसने किसी नई बीमारी के कारण दम तोड़ दिया, जिसके बारे में डॉक्टरों ने बताया कि वह जापानी बुखार (जापानी
एन्सेफलाइटिस)।
मलकानगिरी जिला मुख्यालय से 20 किमी से भी कम दूरी पर, पलकोंडा गाँव में जापानी इंसेफेलाइटिस (JE) और एक्वायर्ड इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES) जैसी संदिग्ध बीमारियों से पांच साल से कम उम्र के 10 बच्चों की मौत हो गई। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, सितंबर और नवंबर के बीच, जिले में हुई 103 बच्चों की मौतों में यह किसी एक गाँव में हुई सबसे अधिक मौत थी। जिला मुख्यालय अस्पताल के मलेरिया अधिकारी, धनुर्जय मोहन्ता ने VillageSquare.in को बताया – “मरने वाले कुल बच्चों में से, 37 की मौत JE से हुई, जो एक मच्छर-जनित फ्लेवीवायरस (पीलिए की श्रेणी का) से संबंधित बीमारी है।”
ओडिशा
विधानसभा में दिए गए,
स्वास्थ्य मंत्रालय के बयान के अनुसार, ओडिशा
के दक्षिण-पूर्व के कोने में स्थित जिले के सात ब्लॉकों के, कम
से कम 180 गांव और मलकानगिरी शहर इस विपदा से प्रभावित थे।
विचारों में मतभेद
सरकार और जिला प्रशासन, जो
देर से जागे, जबकि मौतों की संख्या बढ़ती रही, ने यह मानते हुए कि खेती वाला जानवर वायरस का मूल स्रोत था, पहले मानव बस्तियों से सूअरों को अलग किया। लेकिन इसके बावजूद, मरने वाले बच्चों की संख्या 100 के पार पहुंचने तक,
इन बिमारियों को रोका नहीं जा सका।
चुमुदी
ने बताया –
“लेकिन हमें विश्वास नहीं है कि यह बीमारी का मूल कारण है और
कि मौतें इसके कारण हुई हैं, क्योंकि पड़ोसी गांवों के लोगों
पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, जबकि उनके घरों के पास सूअर
थे।”
तमिलनाडु
स्थित क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल की, जैकब जॉन के नेतृत्व में
शोधकर्ताओं की एक टीम ने, ‘बाना चकुंडा’ (Cassia
occidentalis) नामक पौधे की फलियों के सेवन के कारण, विषाक्त-संक्रमण के सिद्धांत पर जोर दिया।
लेकिन AES और JE से प्रभावित गांवों के लोगों ने इस तरह के दावे को स्वीकार नहीं किया। पलकोंडा की बीरा खोबासी ने VillageSquare.in को बताया – “हम बचपन में, जब जिले में भोजन की भारी कमी हो जाती थी, तो इन फलियों को खाते थे। लेकिन पिछले एक दशक से, किसी बच्चे, यहाँ तक कि किसी वयस्क ने भी, इन फलियों का सेवन नहीं किया है।”
कुपोषण से मौतें?
पलकोंडा के JE या AES के
शिकार हुए सभी 10 बच्चे, कुपोषित और कम
वजन के थे। बीरा ने कहा – “गाँव के कुछ बच्चे, जो स्वस्थ और ठीक से पोषित थे, वे संक्रमण से उबर गए
थे।”
मलकानगिरी
स्थित, सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में करने वाली गैर-लाभकारी संस्था,
‘हारमनी’ की दुर्गा त्रिपाठी ने बताया –
“संक्रमण और ज्यादातर मौतें उन आदिवासी गांवों में हुईं, जहां कुपोषण बहुत है। मरने वालों में 90% से अधिक
स्पष्ट रूप से कुपोषित थे।”
कुपोषण और संक्रमण एवं शिशु मृत्यु दर में एक गहरा संबंध है, क्योंकि खराब पोषण के कारण बच्चे कम वजन, कमजोर और संक्रमण के प्रति कमजोर हो जाते हैं। ऑक्सफोर्ड जर्नल के अनुसार, पांच संक्रामक रोग – निमोनिया, दस्त, मलेरिया, खसरा और एड्स – 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में होने वाली आधे से अधिक मौतों का कारण है। बायोमेड रिसर्च इंटरनेशनल जर्नल में प्रकाशित एक विशेषज्ञ अध्ययन के अनुसार – “कम पोषण और प्रतिकूल परिणाम के बीच संबंध को पुष्ट/संभावित वायरल एन्सेफलाइटिस के रोगियों के साथ जोड़ा जा सकता है।”
पांच
वर्ष से कम आयु के 80,000
बच्चों की आबादी में से, मलकानगिरी में हर साल
1500 से ज्यादा बच्चों की मृत्यु हो जाती है। यानि जिले में
हर महीने औसतन 100 से अधिक बच्चों की मौत होती है।
इस
साल कोई अतिरिक्त मृत्यु न होने का हवाला देते हुए, मोहन्ता ने कहा – “हालाँकि पिछले साल JE या AES का
कोई प्रकोप नहीं था, लेकिन फिर भी सितंबर और नवंबर 2015
के बीच उतनी ही मौतें हुई, जितनी 2016 में थी।”
इससे
यह जाहिर होता है,
कि हालांकि JE या AES का
चक्र तो साल में एक बार का है, फिर भी मलकानगिरी जिले के
स्थानीय बड़े रोगों, दस्त, मलेरिया,
निमोनिया और पाचन तंत्र से जुड़ी बिमारियों से लगभग उतनी ही संख्या
में बच्चों की मौत हो जाती है।
गंभीर कुपोषण
पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट, भारत की स्टीयरिंग कमेटी की सदस्य, मीरा शिवा ने VillageSquare.in को बताया – “इसलिए, मलकानगिरी में इस साल इतने कम समय के भीतर इतने बच्चों की मौत का मूल कारण अति-कुपोषण लगता है, जिससे बच्चों में प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो गई और AES और JE फ़ैलाने वाले वायरस के प्रभाव को बढ़ा दिया।”
2014
के वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार, मलकानगिरी के हर 10 में से सात बच्चों का वजन कम है,
जिससे पांच साल से कम उम्र के बच्चों के सबसे अधिक कुपोषण वाले 100
जिलों में से इस जिले का तीसरा स्थान है।
NRHM
की जिला इकाई के सूत्रों के अनुसार, लगभग 33.4%
बच्चे वेस्टिंग केटेगरी से नीचे होते हुए, मलकानगिरी
में 2015-16 की शिशु मृत्यु दर 53 प्रति
1,000 जन्म रही। NHRM के एक अधिकारी ने
नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया – “जिले में बाल मृत्यु दर
मुख्य रूप से कुपोषण से प्रभावित है।”
टीकाकरण
कार्यक्रम पूरे जोरों पर चलाए जाने से,
JE और AES का खतरा अब घट रहा है। जिला
मुख्यालय अस्पताल का एक फार्मासिस्ट का कहना है – “लेकिन
मलकानगिरी के अस्पतालों में अब मलेरिया के मरीज अधिक संख्या में आ रहे हैं।”
विफल कार्यक्रम
सरकार द्वारा बच्चों की पोषण सुरक्षा और गर्भवती एवं स्तनपान कराने वाली
माताओं के लिए चलाए जा रहे बहुत से कार्यक्रम, जिले भर में अव्यवस्था की स्थिति में हैं।
अपनी
बेटी को इन्सेफेलाइटिस के कारण खो चुकी,
नन्दे माधी कहती हैं – “आंगनवाड़ी केंद्र
नियमित रूप से नहीं खुलता, क्योंकि इसकी कार्यकर्ता एक दूसरे
गांव में रहती थी। केंद्र के लिए भेजे गए भोजन और सामग्री को सभी बच्चों और माताओं
में नियमित रूप से वितरित नहीं किया जाता था। ऐसा केवल JE और
AES के प्रकोप के बाद ही हुआ, कि
आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने हर बच्चे को पका हुआ भोजन दिया।”
बीरा
खोबासी का कहना है –
“जो बच्चे केंद्र में देर से पहुँचते थे, उन्हें भोजन नहीं दिया जा रहा था।” अधेड़ आयु की
ग्रामवासी, इदमा माधी ने बताया, अब जब
बिमारियों पर काबू पा लिया गया है, तो आंगनवाड़ी कार्यकर्ता
फिर से केंद्र में बच्चों को पका हुआ भोजन देने में अनियमित हो गई हैं।
इस वास्तविकता के बावजूद, कि
गांव के दो बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित होने के कारण रेड-जोन (निम्नतम वर्ग) में
हैं और ज्यादातर दूसरे रेड-जोन के निकट वर्ग में हैं, गांव
से किसी को भी, कभी भी, जिला मुख्यालय
अस्पताल के पोषण पुनर्वास केंद्र में नहीं भेजा गया है।
यहां तक कि नवजात बच्चे और मां के स्वास्थ्य, वजन, टीकाकरण और वृद्धि की स्थिति को
दर्ज करने वाली पुस्तक भी माता-पिता को नहीं दी जा रही है। इस पद्यति को सही
ठहराने के लिए मोहन्ता कहते हैं – “आंगनवाड़ी
कार्यकर्ता इसे अपने पास रखते हैं, क्योंकि माता-पिता
रिकॉर्ड को सुरक्षित नहीं रख पाएंगे।”
मलकानगिरि स्थित एक सामाजिक कार्यकर्ता के. देशराज आचारी ने कहा – “जब जिले में एकीकृत बाल विकास सेवाएं (ICDS) कार्यक्रम पूरी तरह से विफल हो गए हैं, तो आदिवासी
समुदायों में जागरूकता की कमी, उन्हें दूसरे कल्याणकारी
कार्यक्रमों के लाभ से भी बाहर कर देती है।”
एक चेतावनी सन्देश
जन-स्वास्थ्य अभियान के राज्य संयोजक, जिन्होंने JE और AES प्रकोप की
स्थिति का अध्ययन करने के लिए जिले भर में यात्रा की, गौरंगा
चरण महापात्रा ने बताया – “गरीबी, भूख
और सामुदायिक स्तर पर जागरूकता की कमी ने मलकानगिरी को कुपोषण से होने वाली मौतों
के लिए एक बड़ा मंच बना दिया है।
यहां की स्थिति अति-चर्चित नगाडा की तुलना में अधिक गंभीर है, जहां कुपोषण से तीन महीने में 19 बच्चों
की मृत्यु हुई थी। जिले में एक वर्ष में कुपोषण से हजारों मौतें होती हैं। लोगों
की सुविधाओं तक पहुँच होने में, सडकों और संपर्क का अभाव
मुख्य रूप से बाधक हैं।”
जिला
कलेक्टोरेट के एक कर्मचारी,
जिसने अपनी पहचान जाहिर न करने की शर्त पर बताया, कि क्योंकि मलकानगिरी वामपंथी उग्रवाद प्रभावित जिलों में से एक है,
इसलिए कल्याणकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की जाँच के लिए
प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा की जाने वाली यात्राओं को मानक संचालन प्रक्रिया
(स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) के अनुसार करना होता है, जो 2011
में माओवादियों द्वारा एक कलेक्टर के अपहरण के बाद से लागू की गई।
यह सरकार के
लिए एक चेतावनी कॉल है कि वह जिले में अपने हस्तक्षेप को मजबूत करे और देखे कि
कल्याणकारी कार्यक्रम ठीक से काम कर रहे हैं और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित की जा रही
है। भारत में स्वास्थ्य के व्यक्तिगत अधिकार को बढ़ावा देने वाले एक गैर-लाभकारी
संगठन,
‘प्रयास’ के नरेंद्र गुप्ता ने कहा, कि सरकार कोसिर्फ कार्यक्रमों और नीतियों की घोषणा से परे सोचने की और
उनके कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।
सिटीजन अलायन्स अगेंस्ट मालन्यूट्रीशन, इंडिया की नीरजा चौधरी के अनुसार, यह मौतें, जो व्यापक रूप से कुपोषण के कारण हुई मानी जाती हैं, 2016 के भारत में नहीं होनी चाहिएं, विशेष रूप से
प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर एक राज्य में। वह कहती हैं – “आदिवासी बच्चे हमारे समाज के सबसे कमजोर लोगों की कड़ी में सबसे नीचे हैं।
मलकानगिरी की स्थिति एक गंभीर चेतावनी है, कि अब समय आ गया
है, कि राज्य सरकारें, गैर-सरकारी
संगठन, फंडिंग एजेंसियां और मीडिया, आदिवासियों
में कुपोषण पर तत्काल ध्यान केंद्रित करें।”
बासुदेव महापात्रा भुवनेश्वर के पत्रकार हैं। विचार
व्यक्तिगत हैं|
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?