जब कल्याण-योजनाओं को लूट लेता है, ग्रामीण संभ्रांत वर्ग
हालाँकि ग्रामीण कल्याण कार्यक्रमों के निष्पक्ष कार्यान्वयन में कई कारण बाधक हैं, लेकिन ग्रामीण संभ्रांत वर्ग और अक्सर उनसे मिले हुए स्थानीय प्रशासन के शिकंजे को तोड़ना महत्वपूर्ण है
संघीय और प्रांतीय सरकारों की कल्याण-योजनाओं की कहानियों को, तथाकथित असामाजिक तत्वों द्वारा चुरा लिया जाता है और बेअसर कर दिया जाता है। मैंने इनके बारे में पहली बार, अस्सी के दशक में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रमों (IRDP) के सम्बन्ध में सुना था, जब मैं ग्रामीण मुद्दों पर शुरुआती अनुभव प्राप्त कर रहा था।
नब्बे के दशक ने उदारीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा था और ग्रामीण कहानियां पृष्ठभूमि में थीं, लेकिन फिर भी, मैंने वाटरशेड विकास कार्यक्रमों और स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना के बारे में ऐसी ही कहानियाँ सुनीं। पिछले दशक में, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में धांधली और मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता कार्यक्रमों को महत्वहीन बनाने की कहानियां चर्चा में थीं। अब वर्तमान शासन में, जनधन बैंक खातों और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) में घपलों की कहानियाँ चर्चा में हैं।
क्या है, जो नकारात्मकता और निराशावाद के इस ज्वार को रोकने और पीछे धकेलने में मदद कर सकता है? क्या हम समझते हैं कि हर संभव कल्याण योजना का जमीनी स्तर पर अपहरण क्यों हो जाता है और उसे तुच्छ क्यों कर दिया जाता है? हमें इस विषय पर व्यापक चर्चा करने की जरूरत है, एक चर्चा जिस में दोषारोपण न हो। मेरे शुरुआती विचार इस प्रकार हैं।
पाँच प्रमुख कारण
मेरे हिसाब से, धरातल पर ग्रामीण परिस्थितियों के पांच प्रमुख कारण हैं, जो सभी सरकारी योजनाओं को बर्बाद करने में आम देखे जा सकते हैं।
पहला कारण, ग्रामीण परिवारों के एक बड़े हिस्से में आमदनी के प्रवाह में एक बड़ा और चिरस्थाई घाटा है। यह घाटा कई कारणों से होता है। इनमें तीन मुख्य कारण हैं – खेती में अनिश्चित और कम आय, स्वास्थ्य सेवाओं को प्राप्त करने के ज्यादा खर्च और बेहद अनुपयुक्त शादी और मृत्यु समारोहों जैसे सामाजिक रिवाज।
दूसरा है महिलाओं अशक्तिकरण और पुरुषों का गैरजिम्मेदार व्यवहार की व्यापकता, जो अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को नज़रअंदाज़ करते हैं और शराब पर (कर्ज तक लेकर) उड़ाते हैं। मैं एक टीटोटलर (मद्यपान, धुम्रपान, मांसाहार आदि न करने वाला) नहीं हूं, लेकिन मैं एक ऐसे व्यक्ति के प्रति सहानुभूति बिलकुल नहीं रख सकता हूं, जो शराब पीने के लिए अपनी पत्नी से पैसे छीनता है, यानि अपने बच्चों का भोजन छीनता है।
तीसरा कारण है, अस्थिर नेतृत्व और प्रशासनिक व्यवस्थाओं का और आमतौर पर विकास-प्रशासन में और खासतौर पर शासन के अग्रणी, गांवों में पंचायती राज संस्थाओं में मानव संसाधन का कमजोर होना।
जाति-वर्ग-सत्ता की सांठगांठ
चौथा कारण कुख्यात जाति-वर्ग-सत्ता की सांठगांठ है, जो ग्रामीण गरीबों को नुकसान पहुँचाने वाली दुर्भावनापूर्ण साजिश के माध्यम से, ज्यादातर कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को हड़पने का आधार प्रदान करता है| आखिरी कारण है, लापरवाहीपूर्ण चूक और कार्यक्रम की जांच और गलत कार्यान्वयन होने पर सुधार की व्यवस्था में कमजोरी।
जहां पहले दो कारण घरेलू मामलों के बारे में हैं – पितृसत्तात्मक संस्कृति, पुरानी रूढ़ीवादी मान्यताओं की जकड़ और पुरुषों की गैर-जिम्मेदार अय्याशी| अंतिम तीन कारण, सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की व्यापकता और स्थायित्व से सम्बद्ध हैं। सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का यह क्रम, किसी अर्थपूर्ण सुधार और विकास को गरीब तक पहुंचने की संभावनाओं को शून्य करता है। जहां अन्ना हजारे या पोपटराव पवार जैसे स्थानीय नेता, अंतिम तीन कारणों से निपटने के लिए स्मार्ट तंत्र तैयार कर सकते हैं, वहां ग्रामीण हालात में सुधार दिखाई देता है।
आगे केंद्र और पूर्वी राज्यों की परिस्थितियों का चित्रण प्रस्तुत है, जहां शासन-स्तर पारम्परिक रूप से खराब रहा है। मुझे बताया गया है कि तमिलनाडु और केरल की स्थिति काफी बेहतर है, लेकिन इसका कोई ठोस सबूत नहीं है।
घटनाओं और घटनाक्रम की साधारण दिशा कुछ इस प्रकार है। गरीब परिवारों की आमदनी में चिरस्थाई और भारी कमी, जो पुरुषों द्वारा शराब पर किए गए गैर-जरूरी खर्च और कर्ज से बदतर हो जाती है, जिससे वे स्थानीय ग्रामीण संभ्रांत वर्ग (दुकानदार, व्यापारी, स्कूल के शिक्षक और जिनकी नकदी का प्रवाह नियमित है, बड़े किसानों और स्थानीय राजनीतिक दिग्गजों) के प्रति कर्जदार, अधीन और कमजोर पड़ जाते हैं।
शोषक द्वारपाल
यह संभ्रांत वर्ग, जाति-वर्ग-सत्ता के गठजोड़ का भरपूर दोहन करते हुए, सभी तरह के विकास का द्वारपाल बन जाता है। इसकी चालाकी, इसे योजना बनाने वालों द्वारा गरीबों तक पहुँचाने के लिए बनाए हर संभव तंत्र को बेकार करने में सक्षम बनाती है। उदाहरण के लिए, मनरेगा में जॉब कार्ड गरीबों को दिया जाना जरूरी है। संभ्रांत समूह यह सुनिश्चित करता है, कि गरीब अपने कार्ड ठेकेदार के पास रखें और फिर मनरेगा मजदूरी के ऐसे टुकड़ों से संतुष्ट महसूस करें, जो संभ्रांत वर्ग उन्हें जीवित रखने के लिए जरूरी समझता है।
जनधन और DBT के मामले में, संभ्रांत द्वारा गरीबों को अपने पासबुक और रूपे कार्ड वहीं रखने के लिए मजबूर किया जाता है, जहां वे दिए गए और अपने पास उनके अंगूठे लगी पैसे निकालने वाली स्लिप रख लेते हैं, ताकि जो कुछ भी जमा किया जाए, उसे वे निकाल लें, वह भी एकदम कानूनी रूप से। राशन की दुकान का डीलर गरीबों के सारे राशन कार्ड जब्त करके, अपने पास रखता है। कृषि-सेवा केंद्र के डीलर की अलमारी भूमि-स्वामित्व दस्तावेजों से भरी है, ताकि गरीब को ऋण माफी या बीमा भुगतान या किसी अन्य योजना के अंतर्गत मिले सब्सिडी के लाभ को हड़प सके।
पक्षपाती प्रशासन
कुछ हद तक, स्थानीय प्रशासनिक संरचना में ग्रामीण संभ्रांत वर्ग के व्यक्ति होते हैं। वे उनमें से न भी हों और मध्यस्थ जिला स्तरीय स्टाफ भ्रष्ट न भी हो, तो भी अपर्याप्त स्टाफ और काम के अधिक भार के कारण होने वाली लापरवाहीपूर्ण चूक, उनकी जकड़ को उलटने में विफल रहता है। क्योंकि विकेंद्रीकृत शासन व्यवस्था के अंतर्गत, स्थानीय विकास प्रशासन,स्थानीय नेतृत्व को रिपोर्ट करता है, इसलिए यह जकड़ पूरी तरह दमघोटू बन जाती है।
इन सबका परिणाम, राजीव गांधी के उस प्रसिद्ध कथन में सन्निहित है, जिसके अनुसार सरकार द्वारा किए गए सभी खर्चों का केवल 15% गरीबों तक पहुँचता है। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध के उनके कथन के समय से अब तक बहुत कुछ नहीं बदला है।
टेक्नोलॉजी से आशाएं
सरकारी और गैर-सरकारी लोग अभी भी गरीबों के हालात में सकारात्मक बदलाव लाना चाहते हैं। ये समर्थक लोग गरीबों तक सीधे पहुँचने के नए तरीके विकसित करते हैं। दूसरी बातों के साथ-साथ, वे मानते हैं कि टेक्नोलॉजी में बहुत सम्भावना है और इसे लागू करने के प्रयास करते हैं। इनमें गरीबों को डिजिटल पहचान, GIS-आधारित निर्णय प्रक्रिया, DBT, इत्यादि जैसी चीजें शामिल हैं।
संभवतः, इसके परिणामस्वरूप कुछ समय के लिए ज्यादा गरीबों को कुछ लाभ मिलता है। यह अच्छा प्रभाव शायद तब तक होता है, जब तक कि ग्रामीण संभ्रांत वर्ग अपनी पकड़ को दोबारा हासिल करने के लिए इस नवाचार को भेदने का कोई तरीका नहीं ढूंढ लेते। उदाहरण के लिए, यदि DBT और जनधन ने मिलकर, इस संभावना को जन्म दिया, कि सरकारी लाभ सही महिला तक पहुंच जाएगा, तो बिचौलिया पहले ही उसके द्वारा बेटी को बीमारी से बचाने की खातिर लिए ऋण के बदले में, धन निकालने के लिए निकासी-पर्ची पर उसका अंगूठा लगवा लेता है।
परिवार को पैसा मिल भी जाए, तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि पति अपनी पत्नी को यातना देकर समर्पण के लिए मजबूर नहीं करेगा और उस शाम दारू पर उड़ाने के लिए हड़प नहीं लेगा। टेक्नोलॉजी ग्रामीण गरीबों और ग्रामीण संभ्रांत वर्ग के बीच, और न ही पुरुषों और महिलाओं के बीच, शक्ति के असंतुलन से लड़ने में सक्षम नहीं लगती है। और खेल जारी रहता है।
क्या इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता है? क्या टेक्नोलॉजी के जानकार पेशेवरों द्वारा प्रशिक्षित और सहयोग-प्राप्त महिलाओं के समूह, ग्रामीण संभ्रांत वर्ग के लोगों की इस जकड़न को तोड़ने वाली ताकत प्रस्तुत करते हैं? क्या ऐसे जिम्मेदार सामुदायिक नेताओं को तैयार करने की कोशिश से कोई लाभ होगा, जो ग्रामीण संभ्रांत वर्ग की लालची प्रवृत्ति को नियंत्रित करने में सक्षम, संगठन का केंद्रबिंदु बनेंगे?
क्या ग्राम परिषद स्तर पर, बेहतर व्यवस्थाएं और प्रशिक्षित कर्मचारी रखने से मदद मिलेगी? या, क्या हम इस प्रक्रिया की शक्तियों, उम्मीदों के सामने आत्मसमर्पण कर दें और ग्रामीण शासन में आम, लेकिन धीमे, व्यापक सुधार और प्रसिद्ध ‘ट्रिकल-डाउन इफ़ेक्ट’ (यानि रिस-रिसकर होने वाला प्रभाव) की प्रतीक्षा करें?
संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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