ग्राम उद्यमिता – ग्रामीण विकास की कुंजी
ग्रामीण भारत में उद्यमों को सक्रिय प्रोत्साहन, ग्रामीण इलाकों में विकास प्रक्रिया का एक संभावित तरीका है और बढ़ती बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिए, उनकी संभावनाओं और सीमाओं के आंकलन की जरूरत है
भारत में कृषि-योग्य भूमि सीमित है और खेती के लिए क्षेत्र का और विस्तार वास्तव में बंद हो गया है। जुताई से लेकर कटाई तक, कृषि सम्बन्धी लगभग हर संभव गतिविधि में मशीनीकरण हो रहा है। अंत में, सिंचाई में वृद्धि धीमी और अनेक जटिल समस्याओं से घिरी प्रतीत होती है। इसलिए, बोए जाने वाले वास्तविक क्षेत्र में और विशेष बढ़ोत्तरी होने की संभावना नहीं है।
इन सब तथ्यों का मिलाजुला परिणाम यह है, कि कृषि में श्रम की जरूरत में बढ़ोतरी की संभावना बेहद कम है। यह तथ्य भी उतना ही सही है, कि काम करने में समर्थ लगभग हर व्यक्ति, जो कृषि से बाहर आना चाहता है, असल में ही बाहर काम करने के लिए पलायन करता है, जो अक्सर शहरी केंद्रों में होता है। यह एक तरफ, अफरातफरी नहीं तो कम से कम मुश्किल शहरीकरण और दूसरी तरफ भारी संख्या में घुमन्तु मौसमी प्रवासी मजदूरों के प्रबंधन की एक जटिल समस्या पैदा करता है।
उद्यम-प्रोत्साहन
ऐसी परिस्थितियों में, ग्रामीण लोगों के लिए उद्यमों और स्व-रोजगार को प्रोत्साहन, ग्रामीण भारत के विकास का संभावित रास्ता माना जाता है।इसके प्रकाश में, ग्रामीण बेरोजगारी की बढ़ती समस्या के समाधान के रूप में, उद्यमों की संभावनाओं और सीमाओं का आंकलन करने की जरूरत है।
विनम्रता का तकाजा है, कि हम यह मान कर शुरू करें, कि ग्रामीण लोगों को उद्यमिता के बारे में उपदेश देना ज्ञानी को पाठ पढ़ाने जैसा है। ग्रामीण व्यक्ति आय अर्जित करने के अवसर की पहचान करते हैं, और वे उस अवसर का पूरा लाभ उठाने के लिए, अपने आस-पास के संसाधनों का प्रबंधन और जुगाड़ करते हैं। इसे वे वास्तव में ही पूरा करते हैं और अपनी आजीविका जुटाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में वे भारी जोखिम उठाते हैं – समय के अंदर कच्चा माल जुटाने से जुड़ा जोखिम, यह सुनिश्चित करने का जोखिम कि वे ठीक रहें, अपने उत्पाद के लिए खरीदार ढूंढने और उनसे लेनदेन का जोखिम, और निश्चित रूप से कीमत और उगाही (पैसा लेना) का जोखिम। अर्थात, लगभग सभी मामलों में, वे जो करते हैं, वह एक उद्यमी द्वारा किए जाने वाले काम से हूबहू मेल खाता है।
अंतर सिर्फ इतना है, कि जहां एक उद्यमी का लक्ष्य अपने उद्यम को बढ़ाने का होता है, वहीं ग्रामीण व्यक्ति अनिवार्य रूप से सिर्फ अपनी आजीविका की जरूरतों को पूरा करने से संतुष्ट रहते हैं। बाकी सभी तरह से खेती सहित, ज्यादातर गतिविधियाँ, जो ग्रामीण लोग करते हैं, उनमें उद्यमशीलता का तत्व रहता है।
उद्यमों का वर्गीकरण
यह देखना ज्ञानवर्द्धक हो सकता है कि धरातल पर स्थिति क्या है। पहले विशिष्ट नियामक और प्रचार एजेंसियों के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर, उद्यमों का वर्गीकरण, आकार या समकक्ष मापदंडों (रोजगार, पूंजी निवेश आदि) के आधार पर किया जाता था। फिलहाल, हम उद्यमों के ऐसे वर्गीकरण को दूर रख देते हैं। यह शायद अधिक व्यवहारिक और प्रासंगिक हो, कि उद्यमों का वर्गीकरण उनसे सम्बंधित ग्रामीण आजीविकाओं के आधार पर हो।
एक उद्यम का सबसे सरल रूप है, आजीविका उद्यम। यहां उद्यमी एक एकल-संचालक है, जो अपने उद्यम के सभी कार्यों का प्रबंधन करती है और उसका मुख्य लक्ष्य अपने गुजारे के लिए पर्याप्त पैसा कमाना होता है। उसका कोई कर्मचारी नहीं है। उसके लिए शायद अपने काम और अपने जीवन के बीच अंतर करना संभव नहीं होता, क्योंकि दोनों एक दूसरे के साथ गुंथे हुए होते हैं। आमतौर पर इस तरह के उद्यम, प्राकृतिक वस्तुओं (लकड़ी के टुकड़े, जड़ें, फल, अन्य सामग्री) के संग्रह; छंटाई, ग्रेडिंग जैसी साधारण प्रोसेसिंग; और नजदीकी बाजारों में बिक्री पर आधारित होते हैं।
इस वर्ग के उद्यमों का दूसरा रूप, सामूहिक स्थलों पर बिकने वाली, इस्तेमाल की साधारण वस्तुओं, जैसे नाश्ता या फूलमालाओं से जुड़ा है। इस वर्ग का थोड़ा विकसित रूप वह होता है, जब वह कलात्मक आकर्षण की वस्तुएं बनाती है, जैसे कि हथकरघा या हस्तकला की वस्तुएं, जिसमें व्यवहारिक उपयोगिता और कलात्मक मूल्य, लगभग बराबर अनुपात में हो सकते हैं। इस प्रकार के उद्यम की प्रमुख विशेषताएं यह हैं, कि इसका लक्ष्य संपत्ति-संचय न होकर, वर्तमान जरूरतों को पूरा करने का होता है, और इसमें स्वयं उसके (उद्यमी के) अलावा और कोई नहीं होता है।
संस्थागत उद्यम
इसका एक अधिक संस्थागत रूप पारिवारिक उद्यम है, जो देश के गांवों में भी आमतौर पर होता है। इसमें, हालाँकि उद्यमी के अलावा कुछ हद तक, दूसरे व्यक्तियों का रोजगार होता है, लेकिन रोजगार में मूल रूप से उसी परिवार के सदस्य होते हैं।
कुछ हद तक श्रम का विभाजन भी देखा जाता है। एक व्यक्ति पड़ोस से सामग्री इकट्ठी करता है, दूसरा व्यक्ति इसे बनाने (प्रोसेसिंग) में माहिर हो सकता है, जबकि तीसरा इसे ग्राहकों को बेचकर पैसा लेता है। डेरी या छोटे स्तर की बागवानी जैसी अधिकांश संबद्ध गतिविधियाँ इसी वर्ग में आती हैं। युवा लोग पशुओं के लिए चारा लाते हैं, गृहिणी जानवरों की देखभाल और दूध निकालने का काम करती है और पति या पुत्र दूध बाजार में बिक्री और पैसा लाने का काम करता है। लेकिन इस उद्यम का मूल चरित्र, आजीविका-उद्यम जैसा ही है – इसका उद्देश्य भी उपभोग की जरूरतों को पूरा करना है, और इसमें भी काम और जीवन के बीच मुश्किल से कोई औपचारिक फर्क है।
सीढ़ी के ऊपरी पायदान
जैसे हम सीढ़ी की ऊपरी पायदान पर पहुंचते हैं, हम प्रासंगिकता के तीसरे वर्ग में आते हैं, संग्रहकर्ता के वर्ग में। संग्रहकर्ता कई आजीविका-उद्यमों या पारिवारिक उद्यमों से उत्पाद इकठ्ठा करता है और इकठ्ठा किए गए सामान की बिक्री पर ध्यान केंद्रित करता है। इस वर्ग के उद्यम में श्रम का विभाजन आवश्यक रूप से होता है। कोई एक व्यक्ति विक्रेताओं से लेन-देन के काम पर ध्यान केंद्रित करता है। इस तरह इकट्ठी की गई कुल मात्रा के आधार पर, उद्यम को मार्केटिंग के लिए कई तरह के काम करने की जरूरत हो सकती है – बहुत से ग्राहकों तक माल पहुंचाने के लिए कई लोगों को काम में लगाने से लेकर, पास के शहर के बाजार में एक पूरी व्यवस्था स्थापित करने तक।
संग्रहकर्ता माल इकठ्ठा करने वाली एक साधारण संग्राहकर्ता हो सकती है, जो केवल उत्पादों को इकठ्ठा करती है और इसे आगे भेज देती है, या वह जिसके पास अपनी प्रोसेसिंग ईकाई हो| बाद के मामले में जटिलता बढ़ जाती है, क्योंकि प्रोसेसिंग अपनी तकनीक और उससे जुड़े तकनीकी तर्क के हिसाब से काम करेगी, प्रोसेसिंग के विशेष काम के लिए माहिर कर्मचारियों और शायद अलग-अलग प्रकार के उत्पाद या उससे निकले उप-उत्पाद के वितरण के लिए अलग-अलग कर्मचारियों की जरूरत होगी।
इस उद्यम का आकार, वस्तु और स्थान का प्रभाव तय करता है, कि आजीविका उद्यम के विशेष गुणों, यानि उपभोग की जरूरतों को पूरा करने की क्षमता के प्राथमिक लक्ष्य और काम एवं जीवन के बीच फर्क को दर्शाने की सीमा क्या होगी।
विकासोन्मुखी उद्यम
इस चरण से आगे, ग्रामीण या ग्राम-आधारित उद्यम भी, विकास-उन्मुख पूंजीवादी उद्यमों की प्रकृति प्राप्त करना शुरू करते हैं। उनका कार्यस्थल बाजार वाले शहर में स्थानांतरित होने लगते हैं, मालिकों, प्रबंधन और देखरेख करने वाले कर्मचारियों, और मजदूरों के बीच फर्क स्पष्ट दिखाई देने लगता है और उद्यम और उत्पादन एवं संग्रह के मूल स्थान के बीच की दूरी बढ़ जाती है।
सवाल यह है कि क्या आप इन उद्यमों में अधिक से अधिक श्रमिक लगाने का प्रयास करना चाहते हैं या इस उद्यमशीलता के आधार को मजबूत बनाना चाहते हैं या ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का विस्तार करना चाहते हैं, या ऐसे उद्यमों की एक नई लाइन स्थापित करना चाहते हैं, जो मौजूदा सामग्रियों, लोगों के कौशल या नजरिए पर निर्भर न हो। इसका आगे चलकर, उद्यम-प्रोत्साहन और आजीविका-निर्माण के कार्य पर गंभीर और व्यवहारिक प्रभाव पड़ेगा।
संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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