गुमला जिले की महिलाओं द्वारा बनाए गए किचन गार्डन से, अनाज, दालों और सब्जियों की समृद्ध विविधता के माध्यम से, ग्रामीण आहार में वृद्धि होती है, जिससे उनके पोषण में सुधार के साथ-साथ, खरीद पर खर्च कम होता है।
झारखंड के गुमला जिले में, किशोर लड़कियों और युवतियों की स्वास्थ्य जांच से पता चला है कि उनमें से 90% में रक्त की कमी (एनीमिया) थी और उनमें रक्त के घटक कम थे। यह अध्ययन पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (PHFI) द्वारा गुमला के गाँवों में, 16 से 22 वर्ष की आयु की बिना क्रम के चुनी गई 100 युवा लड़कियों पर किया गया था।
गुमला जिला जनगणना पुस्तिका, 2011 के अनुसार, जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में 71% आदिवासी परिवार हैं। आदिवासी आबादी का 65% से अधिक कृषक हैं, जबकि 20% खेतिहर मजदूर हैं। गुमला के जैसे गांवों में की जाने वाली खेती से हमें भोजन का भंडार मिलता है। हम तो किसान परिवारों द्वारा पैदा की गई अनेक फसलों के उपहार से तय करते हैं कि हम क्या खाएं, लेकिन किसान क्या खाते हैं? गुमला जिले के परिवार, जहां जाँच की गई थी, आम तौर पर क्या खाते हैं?
जहाँ एक अध्ययन से पता चला है कि ग्रामीणों के आहार में ज्यादातर चावल और पत्तेदार सब्जियां शामिल हैं, वहीं 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) से खुलासा हुआ कि झारखंड में खून की कमी और शरीर के सूचकांक के हिसाब से कम वजन (BMI) वाली ग्रामीण महिलाओं का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से अधिक था। ग्रामीणों के आहार को समृद्ध बनाने और कम लागत में अधिक पौष्टिक बनाने के लिए, पारम्परिक किचन गार्डन को पुनर्जीवित करना सबसे अच्छा विकल्प है।
आहार
सम्बन्धी रुझान
गुमला के रायडीह ब्लॉक के आदिवासी परिवारों
में, रोजाना के आहार में, चावल का मांड और सब्जी या उससे बनी चटनी शामिल हैं। दालें या पशुओं से
मिलने वाले भोजन ज्यादा से ज्यादा हफ्ते में एक बार खाए जाते हैं। यह मामूली भोजन
भी उन्हें साल भर नियमित रूप से खाने को नहीं मिलता| खाना या
आमदनी में कमी होने पर, दिन में कम बार भोजन खाना एक आम बात
है।
नवागढ़ पंचायत के पतराटोली गाँव की 40 वर्षीय, रीता देवी ने VillageSquare.in को बताया – “भोजन में चावल और पत्तेदार सब्जियां हैं, जो ज्यादातर मानसून के बाद यहां आमतौर पर पाया जाने वाला ‘मड़ुआ साग’ होता है। सभी के घर में थोड़ी दाल होती है। अच्छे भोजन का मतलब होगा दाल, आलू, सब्जी और तरीदार सब्जी के साथ चावल खाना। हम हर रोज अच्छा खाना नहीं खा सकते।” ओराओं आदिवासी समुदाय से आने वाली, रीता के पास जमीन नहीं है और वह साल के आधे समय बंटाईदार के रूप में काम करती है। साल के बाकी समय में वह गुमला शहर में एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करती है, जो 20 किमी दूर है।
सिलम पंचायत के पानंटोली गाँव के एक स्व-सहायता समूह की सदस्य, सीमा देवी ने VillageSquare.in को बताया – “हम हर साल उड़द की दाल उगाते हैं, फिर भी हम कभी-कभार ही इसका सेवन करते हैं। इसे आमतौर पर खाने के लिए, एक परिवार को 20 से 30 किलो की जरूरत होगी। लेकिन एक परिवार के पास केवल 5 किग्रा के लगभग ही होगी, क्योंकि बाकी को बेच दिया जाता है।”
पिछली पीढ़ी से स्थानीय भोजन में काफी
बदलाव आया है। चावल और गेहूं से बने भोजन अपनाने के कारण, एक समय के प्रचलित बाजरे की खपत काफी कम हो गई है। अब
केवल कुछेक परिवार ही बाजरा उगाते हैं। जिले में खेती की प्रमुख फसलों में,
धान, मक्का और रागी जैसे अनाज, अरहर और उड़द जैसी दालें और मूंगफली, सरसों और अलसी
जैसी दलहन फसलें शामिल हैं।
हालाँकि बाजारों में अनेक प्रकार का भोजन
उपलब्ध है, लेकिन ग्रामीण परिवारों
द्वारा खाया जाने वाला भोजन कम पौष्टिक होता है। स्थानीय रूप से भरपूर मात्रा में
मिलने वाले पोषक हरी सब्जियां, जैसे कि ‘लेबरी साग’, ‘चरोटा साग’, ‘बथुआ
साग’ और ‘करौंदा साग’ का उपयोग घटा है। ग्रामीणों की मूली, फूलगोभी,
बंदगोभी, गाजर और पालक जैसी संकर किस्म की
सब्जियों को उगाने और खाने में ज्यादा रुचि है।
यह भी पाया गया है कि ग्रामीणों के आहार की
आधे (52%) से अधिक कैलोरी, मिलेजुले भोजन, तेल और वसा से आती है। सब्जियां,
फल, मांस, अंडे, दूध, दालें, आदि, कैलोरी सेवन का बहुत छोटा हिस्सा हैं।
किचन गार्डन
गुमला में, इस समय मॉनसून के दौरान, इलाके की भूमि में और खेतों
में फसलों की पंक्तियों के बीच, चुनिंदा खाद्य फसलों को
उगाने का एक चलन है। परिवार मक्का, सब्जियां, लोबिया और छोला, अपने इस्तेमाल के लिए उगाते हैं,
जिसके लिए वे बीज या तो बाजार से खरीदते हैं या अपनी पिछली फसल में
से बचाकर रखते हैं।
जिनके पास खाली जगह नहीं होती, वे घर के पास उपलब्ध खाली जगह का उपयोग करते हैं, या दूसरों की खाली जगह आपसी सहमति से इस्तेमाल करते हैं। इस प्रथा के आधार पर, एक गैर-सरकारी संस्था, प्रदान (प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन) ने, जुलाई 2016 में पोषणवाड़ी नाम की एक पहल शुरू की। खाली जगह में पोषण-आधारित खेती के रूप में डिज़ाइन के साथ, नौ पंचायतों के कुल 47 गाँवों में पोषणवाड़ी लगाई गई।
600 से अधिक परिवारों के लिए
शुरू की गई पहल का उद्देश्य, परिवारों के आहार को बेहतर
बनाना और पोषण के स्तर में सुधार लाना था। सभी परिवारों के पास खाली जगह नहीं थी,
जिनके पास थी, उनका आकार 2 से 10 वर्गफुट के बीच है, जिनमें
सबसे ज्यादा 5 वर्ग फुट से 7 वर्ग फुट
तक था। दो हेक्टेयर से कम भूमि वाले छोटे और सीमांत किसानों के किचन गार्डन लगाए।
पोषण संबंधी
हस्तक्षेप
किचन गार्डन में उगाए जाने वाले पौधों की
संख्या और किस्म कई बातों पर निर्भर करती है। परिवार की जानकारी और बीज खरीदने की
क्षमता के अलावा, खाली जमीन की उपलब्धता,
परिवार का आकार, परिवार में काम करने वालों की
संख्या और यदि मानसून के बाद उगाना है तो पानी के स्रोत, इनमें
शामिल हैं।
शाहीटोला गाँव में एक समूह-चर्चा सब्जियाँ उगाने पर केंद्रित रही। महिलाओं ने VillageSquare.in को बताया – “कितने दिनों तक हम बाजार से सब्जियां खरीद सकते हैं? उन्हें खरीदने के लिए हमारे पास पैसे कहाँ से आएँगे?” महिलाओं के विचार किचन गार्डन के मुख्य लक्ष्यों में से एक को दर्शाते हैं – घर की खपत के लिए भोजन पैदा करके, अपने आहार में सुधार करें।
किचन गार्डन की स्थिति पर, सेंटर फॉर डेवलपमेंट रिसर्च, पुणे
द्वारा किए गए एक अध्ययन में, यह देखा गया कि गुमला में चार
महीने के दौरान लगभग 60 से 90 घंटे की
मजदूरी से परिवार, 1,600 से 3,200 रुपये
बचा सकते हैं। यह स्थानीय बाजारों के खाने पर होने वाले खर्च में बचत है, जो घर के उद्यान से मिली उपज की वजह से हुई।
अपने किचन गार्डन में राजमा और सेम उगाने वाली शाहीटोला की महिला ने VillageSquare.in को बताया – “जब हमारे गाँव के पुरुष शराब पर इतना पैसा बर्बाद कर देते हैं, तो क्या हम अपने लिए, सब्जियों के बीज खरीदने के लिए, 100 रुपये खर्च नहीं कर सकते?”
आमदनी में बचत के अलावा, किचन गार्डन ने मौजूदा आहार में सुधार किया है।
प्रतिभागी परिवारों ने अपने किचन गार्डन से, कम से कम एक
खेती के चक्र में, सात प्रकार की सब्जियां, तीन प्रकार की दालें, तीन प्रकार की हरी पत्तेदार
सब्जियां और एक फल, अनाज और कंद (आलू, गाजर,
आदि) प्राप्त की हैं। सब्जियों को बारी बारी से इस्तेमाल किया जा
सकता है, और एक चक्र में कम से कम 3 से
4 महीने तक भोजन की व्यापक उपलब्धता होती है।
गुमला में पोषणवाड़ी पहल के कार्यान्वयन के पहले साल में, ग्रामवासियों ने इसे अपनाने के लिए उत्साहपूर्ण रुचि दिखाई। किचन गार्डन लगाने के लिए महिलाएं प्रमुख भागीदार होती हैं। यह देखते हुए, कि आज भारत में कुल कृषि कार्य (स्रोत: रॉयटर्स) का लगभग 70% हिस्सा महिलाओं द्वारा किया जाता है, पोषणवाड़ी को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है, कि यह महिलाओं के काम के बोझ को बढ़ाए नहीं। वे इसके लिए दिन में दो घंटे से भी कम समय खर्च करती हैं।
आगे का
रास्ता
एक हस्तक्षेप के रूप में, पोषणवाड़ी, ग्रामीण परिवारों में
भोजन की उपलब्धता और विविधता को बढ़ाने के लिए, यहाँ जैविक
रूप से उगाई जाने वाले अनाज, दालों, सब्जियों
और हरी पत्तेदार सब्जियों की स्थानीय किस्मों के बीज का एक समृद्ध मिश्रण प्रदान
करता है।
हस्तक्षेप के वर्तमान डिजाइन में, उन परिवारों को शामिल करना एक चुनौती है, जिनके पास भोजन उगाने के लिए, न तो खेती की भूमि है,
न ही खाली जगह और घर के पास ठीक से उपयोग करने के लिए स्थान।
भारत में कृषि और पोषण के बीच मौजूद मेल के
अभाव से निपटने के लिए, बढ़ावा देने की जरूरत के
बावजूद, इस तरह के हस्तक्षेपों को विकास साहित्य से अभी भी
हटा दिया गया है। अब समय है कि ऐसी पहल को दोहराया जाए और कृषि प्रक्रियाओं की
पुनर्रचना की जाए, ताकि ग्रामीण परिवारों के लिए भोजन की
उपलब्धता बढ़े।
गुमला के मौजूदा उपयोगकर्ता, किचन गार्डन के महत्व को स्वीकार करते हैं। किचन
गार्डन महिलाओं के पोषण की स्थिति में सुधार के अलावा, गुमला
जिले और भारत भर में, इस समय मौजूद जेंडर-आधारित विषमता को
ठीक कर सकते हैं।
सौमी
कुंडू दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय से ‘एम. फिल. इन
डेवलपमेंट प्रैक्टिस’ प्राप्त एक रिसर्च स्कॉलर हैं। वह
सेंटर फॉर डेवलपमेंट रिसर्च, पुणे की टीम का हिस्सा थीं,
जिसने चार राज्यों में किचन गार्डन की स्थिति पर अध्ययन किया था।
विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?