पौधा-नर्सरी से महिलाओं को प्राप्त हुई सफलता और सशक्तिकरण
एक समूह के रूप में साथ आकर और पौधों की नर्सरी लगा कर, साहूकारों द्वारा शोषित महिलाओं ने अपने परिवारों को खिलाने और देखभाल के लिए अधिक कमाई की
पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना जिले के देगांगा प्रशासनिक ब्लॉक के एक कृषि-प्रधान गाँव चाकला में, एक आम भारतीय गाँव के सारे गुण हैं। बेरोजगारी, गरीबी, निरक्षरता और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव वे समस्याएँ हैं, जिनका सामना ग्रामीणों को करना पड़ता है। यह गाँव जिला मुख्यालय, बारासात से लगभग 25 किमी और राज्य की राजधानी कोलकाता से 45 किमी दूर है।
हालांकि कृषि आजीविका का मुख्य स्रोत है, लेकिन भूख उनका पीछा करती रहती है। ग्रामीणों द्वारा खेती के पारम्परिक तरीकों और बीजों के इस्तेमाल के कारण, पैदावार कम होती है। एक 64-वर्षीय सब्जी विक्रेता, रेवा का कहना था – “हम चावल का एक दाना या सब्जी का टुकड़ा भी कभी बर्बाद नहीं करते, क्योंकि हमें अभी भी रोजाना के आधार पर पूरा भोजन पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मौसमी फसलों से हमारा भोजन तय होता है।”
फसल के मंडी में पहुँच जाने तक, जलवायु के प्रभाव से चरम मौसम की घटनाएँ और भंडारण सुविधा का अभाव किसानों के संकट को बढ़ाता है, जिससे उनके दिन-प्रतिदिन की जिंदगी प्रभावित होती है। चकला मंदिर के पास पूजा का सामान बेचने वाली एक महिला का कहना था – “हम अपना बोझ कम करने के लिए अपनी बेटियों की शादी बहुत कम उम्र में कर देते हैं और हम अपने बेटों को काम पर भेज देते हैं, ताकि हम परिवार का भरण पोषण कर सकें। हमारे बच्चों के लिए, स्कूल केवल मध्यान्ह भोजन मात्र की एक जगह हैं।”
वर्ष 2011 की मतगणना के अनुसार, गाँव की 2269 की कुल आबादी में से 48% महिलाएँ हैं। हालांकि महिलाएँ आजीविका और बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण असंतुष्ट थी, लेकिन हालात उस समय बदलने लगे, जब उन्होंने स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) का गठन किया और विकास संगठनों की मदद से पौध नर्सरी शुरू की।
साहूकारों द्वारा शोषण
चाकला की एक SHG की सदस्य, पिंकी पार्थो ने VillageSquare.in को बताया – “हालात तब बदलने लगे, जब ‘बंधु’ ने हमें SHG शुरू करने का निर्देश दिया।” बंगाली में बंधु का अर्थ है, दोस्त| महिलाएं जिस व्यक्ति को बन्धु कह रही थी, वह ग्रामीण विकास पर काम करने वाली NGO, ‘जीरो फाउंडेशन’ के संस्थापक, अब्दुल नासर हैं।
महिलाएँ अज्ञानता में डूबी हुई अनाड़ी थी, क्योंकि उनका जीवन उनकी झोपड़ी के इर्द-गिर्द घूमता था। नासर कहते हैं – “यदि एक अंडे की कीमत पांच रुपये है, तो आपको 10 अंडे खरीदने के लिए उन्हें पांच-पांच रुपये के दस सिक्के देने होंगे। नहीं तो उनकी गिनती ठीक नहीं बैठेगी। स्थानीय साहूकार इस अज्ञानता का फायदा उठाते हैं और ब्याज के रूप में बड़ी रकम हड़प लेते हैं।”
अपने सीमित ज्ञान के कारण, ग्रामवासी ब्याज देते रहे और कभी भी अपना ऋण चुकता नहीं कर पाए। नासर बताते हैं – “दूध या अंडे बेचकर महिलाएँ जो छोटी रकम कमाती हैं, वह सीधे साहूकारों की जेब में जाती हैं। टूटे-फूटे और जर्जर झोपड़े, ख़राब सेहत, गरीबी और अनपढ़ बच्चे उनकी संपत्ति हैं।”
बदलाव की ओर
पिंकी पार्थो कहती हैं – “हम बंगाली महिलाएँ आम तौर पर काम के लिए कभी बाहर नहीं जाती हैं। घर का रखरखाव, बुजुर्गों और बच्चों की देखभाल, और खाना पकाना हमारे काम हैं। इसलिए SHG शुरू करना या उसमें शामिल होना आसान नहीं था। हम घर से बाहर निकलने में झिझकते थे। हम घरेलू काम से परे कुछ भी करने का सपना नहीं देख सकते थे।”
धीरे-धीरे चाकला की महिलाओं ने समझा कि स्वयं सहायता समूह के माध्यम से उन्हें लाभ ही मिलेगा। कुछ ने पशु पालने शुरू किए, कुछ ने सिलाई इकाइयां बनाई। पार्थो ने कहा – “हमने पौधों की नर्सरी शुरू करने का फैसला किया। अब, सात साल बाद, जब हम पीछे मुड़कर इस यात्रा पर नजर डालते हैं, तो हमें अपने काम पर और हमारे जीवन में हुए सकारात्मक बदलाव पर गर्व होता है।”
10-20 महिला सदस्यों के साथ शुरू किए गए स्वयं सहायता समूहों में से, छह ने पौध नर्सरी शुरू करने का फैसला किया। नर्सरी शुरू करने में कम निवेश, कम जोखिम वाले तत्वों और शीघ्र शुरुआती आय का भरोसा ऐसे कारण थे, जिनसे महिलाओं ने नर्सरी शुरू करने का फैसला किया।
पौध नर्सरी
अब्दुल नासर ने VillageSquare.in को बताया – “गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा क्षेत्र में मिट्टी उपजाऊ होने के कारण, बंगाल के इन हिस्सों में पौधों की नर्सरी एक आम दृश्य है। निचले क्षेत्र की समतल भूमि नदी-जनित गाद से समृद्ध है, क्योंकि उनमें कृषि के लिए उपयुक्त खनिज और पोषक तत्वों की बड़ी मात्रा होती है।”
फाउंडेशन ने महिलाओं को उच्च गुणवत्ता वाले बीज प्रदान किए और ऋण प्रक्रिया को आसान बनाया। SHG एक लाख रुपये तक का ऋण ले सकती थी। SHG की एक सदस्य, गोपा नाग कहती हैं – “जहाँ हम बैंक को लगभग 4,000 रुपये का ब्याज चुकाते हैं, वहीं यह सालाना 30,000 से 60,000 रुपये होता था।”
महिलाओं ने पट्टे पर 5 से 10 डिसमल जमीन ली और इसे तैयार किया, और पौधों के लिए छोटे बैग खरीदे। नाग ने बताया – “हमने मिट्टी खरीदी। इस पर ढुलाई सहित 500 से 1000 रुपये का खर्च आता है। भूमि के मालिक हमें थैलियों में भरने के लिए मिट्टी का उपयोग करने की अनुमति नहीं देते, क्योंकि वे मिट्टी की ऊपरी सतह को खोना नहीं चाहते। हमारे इलाके में बहुत सारे तालाब हैं, जिन्हें मिट्टी निकाल कर अक्सर गहरा किया जाता है। किसानों और दूसरी नर्सरी की तरह, हम भी मिट्टी खरीदते हैं।”
अच्छा बाजार
नाग ने VIllageSquare.in को बताया – “हम आमतौर पर फलदार पौधे उगाते हैं, क्योंकि उनकी ऊंची मांग है। ऐप्पल-बेरी, अमरूद, मुसम्बी, नींबू और आम की पौध मुख्य पौध हैं, जो हम उगाते हैं। हम गोभी की सब्जी की पौध भी पैदा करते हैं।”
पुराने दिनों में, महंगे पौधों और बांग्लादेश के मजदूरों का पौध नर्सरी के बाजार पर राज था। पहले ड्रैगन फ्रूट की एक पौध की कीमत 400 से 500 रुपये थी। अब नर्सरी उन्हें 5 से 10 रुपये में बेचती हैं, जिससे महिलाओं को लाभ होता है। महिलाएं उन्हें मिलने वाले ऑर्डर के अनुसार पौध उगाती हैं। बड़ी नर्सरी SHG की नर्सरी से भी पौधे खरीदती हैं।
पौधों की नर्सरी का मुख्य लाभ यह है कि इसमें निवेश का खर्च कम होता है और थोड़े समय के भीतर आमदनी हो सकती है। इसमें समस्याएं भी हैं। पिछले साल मई में अम्फन तूफ़ान ने पूरे भूगोल को बुरी तरह प्रभावित किया। झोंपड़ियों, फसलों, पशुओं, पेड़ों आदि समेत सब कुछ नष्ट हो गया। उपजाऊ मिट्टी बह गई।
स्वयं सहायता समूह की एक सदस्य, समाप्ती ने VillageSquare.in को बताया – “किसी तरह, हम अपने पौधों को चक्रवात से बचाने में कामयाब रहे। चक्रवात के बाद शुरुआती अव्यवस्था के समाप्त होने पर, हमें बाजार में इन्हें बेहतर कीमत पर बेचने में कामयाबी मिली।”
सशक्त महिलाएं
फाउंडेशन ने महिलाओं को पढ़ना और लिखना सिखाया। महिलाओं ने बुनियादी गणित सीखा। वे आमतौर पर घरेलू काम खत्म करने के बाद नर्सरी में काम करती हैं। वे पौधों की देखभाल, बीज और मिट्टी की खरीद, पौधों की बिक्री और खातों के रखरखाव की जिम्मेदारियां बाँट लेती हैं। इससे एक इकाई को कुशलतापूर्वक चलाने में सभी सदस्य सक्षम होती हैं।
सात साल पहले नर्सरी शुरू करने के बाद से, उन्होंने अपने धन और कर्ज़ अदायगी को सुचारू रूप से संभाला है। वे पश्चिम बंगाल के साथ-साथ महाराष्ट्र, केरल, गुजरात और यूपी जैसे दूसरे राज्यों की बड़ी नर्सरियों को पौध बेचते हैं। SHG की कुछ सदस्य की कला में पारंगत हो गई हैं और इस महारत से समूहों को पौधों की नई किस्में विकसित करने में मदद मिली है।
मुस्लिमा बीबी (48) तीन साल पहले SHG में शामिल हुई थीं। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “नर्सरी से मुझे कई तरह से मदद मिली है। इससे मैं अपने परिवार को तीन वक्त का भोजन खिलाने में सक्षम हुई हूँ। मैं अपनी फूस की छत की मरम्मत कर पाई, मैंने बकरियाँ और एक गाय खरीदी। अपनी बेटी की शादी का प्रबंध किया।”
बहुत से सदस्यों की सफलता की ऐसी ही कहानियां हैं – रिसाव-रहित छत के नीचे सोने, बच्चों के लिए तीन वक्त के भोजन, फर्नीचर, वृद्ध माता-पिता के लिए चारपाई से लेकर, पशु खरीदने तक। बीबी कहती हैं – “हमें एहसास हुआ कि हमारी छोटी सी कमाई उन दिनों कैसे सीधे साहूकारों के पास पहुँच जाती थी। अब हमारे पास बैंक खाते तक हैं। और हम जानते हैं कि पैसे का लेनदेन कैसे संभालना है। ”
चित्रा अजीत केरल के कोज़िक्कोड में स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल: chithraajith246@gmail.com
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