माँग की कमी के साथ-साथ कच्चे माल की बढ़ती लागत के कारण, पश्चिम बंगाल में लाख (लाख कीड़े से मिलने वाला लाल रंग का कुदरती पदार्थ, जिसका उपयोग वार्निश, मोहर-सील, चूड़ियों आदि में होता है) की गुड़िया के लिए मौत की घंटी बज गई है, जब केवल एक कारीगर इस पर काम कर रहा है
लाख की गुड़िया, या बंगाली बोलचाल की भाषा में ‘गलार
पुतुल’ बनाने वाले एकमात्र कारीगर, बृंदाबन
चंदा एक मरणासन्न कला के जीवित प्रतीक हैं। 65-वर्षीय चंदा
राज्य की राजधानी कोलकाता से लगभग 180 किलोमीटर दूर, पूर्व मेदिनीपुर जिले के पोताशपुर प्रशासनिक ब्लॉक के दूरदराज गाँव,
पश्चिमसाई में रहते हैं। गुड़ियों की घटती माँग के कारण, बाकी कारीगर दूसरे व्यवसायों की ओर चले गए हैं।
हिन्दू देवता, भगवान गणेश की एक लाख की गुड़िया पर लाल रंग करते हुए
वह कहते हैं – “पहले हमारे गाँव में लगभग 20 परिवार लाख की गुड़िया बनाते थे, जिससे उन्हें काफी
अच्छी आजीविका मिल जाती थी। लेकिन सस्ते प्लास्टिक की गुड़िया के आने से उनकी माँग
घटती गई। कारीगरों के पास दूसरे धंधों को अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।”
दो साल पहले यह कारीगर उस समय सुर्ख़ियों
में आ गए, जब एक स्थानीय राजनीतिक
नेता ने पश्चिमी बंगाल के कलाईकुंडा हवाई अड्डे के दौरे पर आए प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी को चंदा की बनाई गणेश की गुड़िया भेंट कर दी। प्रधानमंत्री ने उल्लेख
किया था – “गणेश छोटे हो सकते हैं, लेकिन पूरे पश्चिम बंगाल का प्रतिनिधित्व करने के लिए काफी बड़े हैं।”
तब से गणेश का नाम मोदी गणेश पड़ गया।
स्थानीय समाचार पत्रों ने खबरों को प्रमुखता से उठाया, जिससे चंदा सुर्ख़ियों में आ गए। उन्हें ऑर्डर मिलने लगे और उन्हें कला को पुनर्जीवित करने में कामयाबी मिली। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “मांग और आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर मुझे ऑर्डर प्राप्त करने में मदद कर रहा है। आदेश नियमित रूप से मिल रहे हैं, क्योंकि बंगाल में इस कला पर काम करने वाला कोई भी कारीगर नहीं बचा है।
प्राचीन
शिल्प
पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, बीरभूम, बांकुरा और मेदिनीपुर जिलों में, मिट्टी से पारम्परिक लाख की गुड़िया बनाना, एक फलता-फूलता उद्योग था। मिट्टी के लौंदों से उँगलियों द्वारा कुशलता से देवी-देवताओं, जानवरों, गुड़िया और फलों की असंख्य किस्मों की आकृतियों में ढाली जाती हैं।
बंगाल में लोक कला के पुनरुद्धार के लिए
काम कर रहे गैर-लाभकारी संगठन, ‘दरीचा फाउंडेशन’ के संस्थापक-सचिव, रत्नाबोली बोस ने बताया –
“प्राचीन काल से लाख की भरपूर उपलब्धता के कारण, बंगाल में लाख की गुड़िया बनाने का काम शुरू हुआ। एक ब्रिटिश नौजवान,
डेविड एर्स्किन के नेतृत्व में यह 1787 में एक
संगठित उद्योग बन गया। लेकिन यह बीरभूम जिले के इल्लमबाजार तक सीमित था, क्योंकि लाख स्थानीय जंगल में उपलब्ध था।”
बोस ने VillageSquare.in को बताया – “20वीं शताब्दी की शुरुआत तक लाख की गुड़िया, बीरभूम के हिंदू कारीगरों के एक वर्ग, नूरी द्वारा बनाई जाती थी। वे चूड़ियाँ, नकली फल, आभूषण के बक्से और स्थानीय रूप से ‘अल्टा’ कही जाने वाली लाख-डाई भी बनाते थे।”
“लेकिन कच्चे माल की कमी और
नादिया जिले के कृष्णानगर के मिट्टी की गुड़ियों से मिली कड़ी टक्कर के कारण,
लाख की गुड़िया बनाने वालों को वैकल्पिक आजीविका ढूंढने के लिए मजबूर
होना पड़ा। जहाँ बीरभूम के कारीगर गुमनामी में समा गए, वहीं
बांकुरा और मेदिनीपुर जिले के उनके समकक्षों ने कला को अपनाया।”
बोस के अनुसार, यह दौर ज्यादातर समय जारी रहा, लेकिन
घटती मांग के वही मुद्दे सामने आने शुरू हो गए। बोस कहते हैं – “यहां तक कि रवींद्रनाथ टैगोर ने बीरभूम जिले के बोलपुर के ‘श्रीनिकेतन’ में कार्यशालाएं आयोजित करके इस मरणासन
कला में जान फूंकने की कोशिश की थी।”
गुड़िया
बनाने की कला
गुड़िया बनाने की प्रक्रिया समझाते हुए, चंदा ने कहा कि गुड़िया बनाने के लिए मिट्टी को दीमक
की चट्टानों से इकट्ठा किया जाता है, क्योंकि इसमें बजरी
नहीं होती और इसमें चिपकने वाला गुण होता है। “मिट्टी को दो
से तीन दिनों के लिए भिगोया जाता है और फिर कोमल होने तक गूंथा और साफ़ किया जाता
है। फिर इसे छोटी गुड़िया या खिलौना बनाने के लिए, कोंचा और
दबाया जाता है।”
चंदा कहते हैं – “दो से छह इंच की ऊंचाई के छोटे मॉडल, कोयले की भट्टी में पकाने से पहले धूप में सुखाई जाती हैं। इसके बाद गुड़िया को स्थानीय तौर पर खरीदे गए, रंग के पाउडर से तैयार लाख की लंबी छड़ों से रंगा जाता है।”
चंदा कहते हैं – “गुड़िया पर सफ़ेद और पीले लाख की छड़ों में से बने बारीक़
धागों से सजाया जाता है। ये रंग कम से कम तीन से चार दशकों तक फीके नहीं पड़ेंगे।
इसकी सिर्फ कपड़े से कभी-कभी सफाई की जरूरत है।”
लाख की
गुड़ियों के स्थान पर
चंदा इस कला को जारी रखने में कामयाब रहे, जबकि उनके 25 लोगों के परिवार
के दूसरे सदस्य, इस परम्परागत कला को सीखने के बावजूद,
शंख की चूड़ियाँ बनाने लगे हैं। बृंदाबन चंदा की रिश्तेदार, संध्यारानी चंदा (60) का कहना था – “हमने बचपन से ही गलार पुतुल (लाख की गुड़िया) बनाई और कुछ समय तक इसे जारी
रखने की कोशिश की। लेकिन इसका कोई भविष्य नहीं है।”
संध्यारानी चंदा ने VillageSquare.in को बताया – “हमें शायद ही ग्राहकों से कोई ऑर्डर मिलता था। धीरे-धीरे हमें अपनी आजीविका चलाना मुश्किल हो गया। हमने शंख की चूड़ियाँ बनाने का फैसला किया, जिन्हें बंगाल और ओडिशा की महिलाएँ पहनती हैं।”
विधवा आगे कहती हैं कि शंख की चूड़ियों की, बंगाल के समुद्र किनारे कस्बे, ‘दीघा’ जैसे पर्यटन स्थलों, और
पड़ोसी राज्य ओडिशा में भारी मांग है, जहां दूसरे राज्यों के
पर्यटक उन्हें खरीदते हैं। “भुगतान तुरंत होता है और मांग
ऊँची है। लाख की गुड़िया से पांच गुना ज्यादा आमदनी है, जिसका
खरीददार मुश्किल है। हमें भारी मन से व्यवसाय को विदा करना पड़ा।”
गैर-पारिश्रमिक
कड़ी मेहनत
पुराने कारीगर इस व्यवसाय को छोड़ने के लिए
कच्चे माल की बढ़ती लागत को जिम्मेदार ठहराते हैं। स्वास्थ्य-सम्बन्धी उलझनों के
कारण कुछ साल पहले कला छोड़ चुके पश्चिमसाई के एक कारीगर, 80 वर्षीय श्रीबास चंद्रा चंदा कहते हैं – “आजकल लाख बहुत महंगा है और तीन दशक पहले के महज 30 रूपए
से 1,700 रूपए किलो हो गया है।”
श्रीबास चंद्रा चंदा ने VillageSqaure.in को बताया – “यहां तक कि कोयले की कीमत कुछ साल पहले के 18 रुपये से लगभग 60 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई है। गुड़ियों से लाभ कमाना बहुत मुश्किल है, जिसमें घंटों मेहनत और एकाग्रता की जरूरत होती है। एक कारीगर को धधकती धूप में और गर्मी एवं उमस में कई घंटे गर्म कोयले के पास बैठना पड़ता है।”
वह कहते हैं – “एक छोटी सी गलती से तरल लाख के गिरने के कारण एक
फफोला बन जाता है। कई घंटे काम करने से पीठ का दर्द और आँखों में खिंचाव होता है। कड़ी मेहनत के बाद भी, यदि गुड़िया 100
रूपए की बिके, तो कारीगर को सिर्फ 20 रुपये मिलते हैं। आर्थिक लाभ की गई मेहनत के लायक नहीं है।”
भावनात्मक
संबंध
यह मानते हुए भी, कि यह काम आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है, बृंदाबन चंदा अब भी उस रास्ते पर चलने को तैयार नहीं हैं, जिस पर उनके गांव के साथी कारीगर चले गए हैं। उनका कहना है –
“लाख की गुड़िया बनाना मेरी रोजी-रोटी ही नहीं है, बल्कि यह एक भावनात्मक बंधन है, क्योंकि मेरे
माता-पिता ने मुझे यह कला सिखाई थी जब मैं बहुत छोटा था। हमने जीवन के अच्छे और
बुरे दिनों को एक साथ देखा है और जीवित रहने में कामयाब रहे हैं।”
भारी
बारिश के संकेत दे रहे आकाश को देखते हुए,
वह कहते हैं – “मैं जब तक जीवित हूँ,
इसे छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मुझे उस कला की हालत देखकर
दुःख होता है, जो कभी बंगाल में फलती-फूलती थी। यह स्वीकार
करना असल में ही बहुत दुख की बात है, कि मेरे अंतिम सांस
लेने के बाद यह गुमनामी में डूब जाएगा।”
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं। विचार
व्यक्तिगत हैं। ईमेल: gurvinder_singh93@yahoo.com
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