जंगल की आग के कारण वन-आश्रित जनजातियों की आय में हानि होती है
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में आग के कारण, महुआ के फूल और दूसरी वनोपज एकत्र न कर पाने के कारण, पहले से ही महामारी से प्रभावित आदिवासी समुदाय अपनी आजीविका खो चुके हैं
मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के बामेरा गाँव के रहने वाले एक वनवासी, वृन्द प्रजापति ने मार्च के अंतिम सप्ताह में वन क्षेत्र में हुई आग की घटना के बारे में बताया – “मैंने इस तरह की जंगल की आग पहले कभी नहीं देखी। इस साल, आग हमारे गांव में प्रवेश कर गई, और मैं देख सकता था कि यह मेरे घर से सिर्फ 100 मीटर दूर थी। आग के वे तीन दिन हमारे लिए भयानक थे।”
प्रजापति और उनका परिवार आमतौर पर जंगल से लघु वनोपज इकठ्ठा करते हैं, लेकिन कई दिनों तक चली आग के कारण उनके काम में बाधा आई, जिससे उनकी कमाई प्रभावित हुई। प्रजापति कहते हैं – “मेरा गाँव जंगल की पतौर रेंज में आता है, जो बुरी तरह आग की चपेट में आ गया था। ग्रामवासी महुआ के फूल इकठ्ठा नहीं कर सके और उन्हें भारी नुकसान हुआ।”
प्रजापति का परिवार इस मौसम में आमतौर पर तीन क्विन्टल महुआ के फूल इकट्ठा करता है, लेकिन इस बार बाह ऐसा नहीं कर सके। यह मौसम वनवासियों के लिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि उनकी आजीविका पहले ही COVID-19 महामारी की मार झेल रही थी।
प्रजापति ने आगे कहा – “ग्रामवासी आमतौर पर नौकरियों की तलाश में शहरों को पलायन करते हैं, लेकिन लॉकडाउन के कारण, वह विकल्प उपलब्ध नहीं है। लॉकडाउन के कारण काम के नुकसान के बाद, महुआ फूल और अन्य लघु वनोपज हमारी आखिरी उम्मीद थी।”
आजीविका पर प्रभाव
आग की घटना उस समय हुई, जब आदिवासी लोग पहले से ही COVID-19 लॉकडाउन की मार झेल रहे थे। हाल ही में शोधकर्ताओं, कार्यकर्ताओं और जमीनी स्तर के संगठनों द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट से पता चला है, कि कैसे भारत में आदिवासियों और वनवासियों को COVID-19 लॉकडाउन के समय कष्ट सहना पड़ा।
रिपोर्ट के अनुसार – “लॉकडाउन ने जनजातियों और वनवासियों द्वारा लघु वन उपज या गैर-इमारती लकड़ी वन उपज के संग्रह, उपयोग और बिक्री को प्रभावित किया है। अनुमान से 10 करोड़ वनवासी भोजन, आश्रय, दवाओं और नकद आय के लिए लघु वनोपज पर निर्भर हैं।”
इसने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा जारी एक सलाह पर प्रकाश डाला, जिसमें सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को संरक्षित क्षेत्रों में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया गया था, यह जोड़ते हुए कि इससे संरक्षित क्षेत्रों में और आसपास रहने वाले लगभग 30-40 लाख लोगों पर तुरंत प्रभाव डालेगा।
रिपोर्ट में कहा गया है – “ये ज्यादातर आदिवासी समुदाय हैं, जिनमें दूसरे समुदायों के साथ-साथ, विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTGs), खानाबदोश और चरवाहा समुदाय, मछली-पालन में मजदूर शामिल हैं, और जो अपनी आजीविका के लिए संरक्षित क्षेत्रों के भीतर और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर सबसे ज्यादा निर्भर हैं।” इसे जनजातीय मामलों के मंत्रालय को भेजा गया था। मंत्रालय ने दावा किया कि जनजातियों की आजीविका की रक्षा के लिए उपाय किए जा रहे हैं।
मार्च में लोक सभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए, जनजातीय मामलों की राज्य मंत्री, रेणुका सिंह सरुता ने कहा कि 2020-21 के दौरान, राज्य सरकार ने आदिवासी लघु वनोपज संग्रहकर्ताओं को तत्काल आजीविका सहायता प्रदान करने के लिए, 157.51 करोड़ रुपये के लघु वनोपज की खरीद की गई। यह प्रश्न लॉकडाउन के कारण जनजातियों के सामने आने वाली समस्याओं के समाधान के उपायों के बारे मंत्रालय द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में था।
जंगल में आग की चेतावनी
भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI), सौमी नेशनल पोलर-ऑर्बिटिंग पार्टनरशिप-विजिबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सूट सैटेलाइट सेंसर से मिलने वाली जंगल में लगी आग की चेतावनी भेजता है। ये चेतावनी नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर, हैदराबाद द्वारा प्रोसेस किए गए लगभग वास्तविक समय के आग के स्थान संबंधी जानकारी पर आधारित हैं।
चेतावनी की संख्या इस बात पर निर्भर करती है, कि उपग्रह एक दिन में कितनी बार पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है, जिसकी संख्या वर्तमान में 24 घंटों में छह बार है। इस साल 24 मई 2021 तक, इस सिस्टम ने भारत से 385,000 बार चेतावनी भेजी थी। यह संख्या 2020 लगभग दोगुना है, जो कि 154,032 थी, जबकि 2019 में यह संख्या 213,684 था।
झारखंड में जंगल की आग के रुझान विश्लेषण और पर्यावरण मानकों के प्रभाव पर किए गए एक अध्ययन का हिस्सा रहे एक भारतीय वन सेवा (IFS) अधिकारी, अब्दुल कयूम ने बताया – “रुझान बहुत सुखद नहीं है, यह संख्या और प्रभाव दोनों ही मामले में बढ़ रहा है।”
आग की बढ़ती घटनाएं
मध्य प्रदेश के वन विभाग को, बीटीआर के फील्ड डायरेक्टर, विन्सेंट रहीम की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट में कहा गया है, कि इस साल मार्च-अप्रैल में हुई बांधवगढ़ में हुई आग की घटनाओं से वन क्षेत्र का एक प्रतिशत प्रभावित हुआ था। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, समिति ने यह भी पाया कि आग से कोई जानवर या पेड़ प्रभावित नहीं हुआ।
मध्य प्रदेश के वन्यजीव और पर्यावरण कार्यकर्ता, अजय दुबे का कहना है कि रिपोर्ट में खामियां हैं। यदि उत्तराखंड में लगी आग से तुलना की जाए, तो दुबे के इस दावे में, कि किसी भी इंसान या जानवर को नुकसान नहीं पहुँचा है, कुछ वैधता प्रतीत होती है।
उत्तराखंड वन विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, इस साल आग की 2,920 घटनाओं से, 393 वर्ग किमी (3,963 हेक्टेयर) वन और वन-ग्राम प्रभावित हुए थे। हालाँकि यह क्षेत्र मध्य प्रदेश में आग की चपेट में आए क्षेत्र का लगभग एक चौथाई है, आग से आठ लोगों और 29 जानवरों की जान गई और तीन लोग और 24 जानवर घायल हो गए।
बीटीआर फील्ड रिपोर्ट में कहा गया है कि स्थानीय लोगों की लापरवाही, प्राकृतिक कारण और मानव-जानवर संघर्ष, बांधवगढ़ में आग लगने के कारणों में से कुछ कारण थे। बांधवगढ़ के तला में स्थित, एक वन्यजीव फोटोग्राफर सतेंद्र कुमार तिवारी ने बताया – “छत्तीसगढ़ से बांधवगढ़ में घुस आए हाथियों के कुछ झुंड, स्थानीय लोगों की संपत्ति और फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। हो सकता है कि उन्होंने हाथियों को दूर रखने के लिए जंगल में आग लगा दी हो।”
आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव
MoEFCC और विश्व बैंक द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, आग के पर्यावरण संबंधी प्रभावों की तरह, भारत में आग के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान के व्यापक आंकलन का अभाव है। रिपोर्ट में कहा गया है – “आधिकारिक रिपोर्टों और आंकड़ों में, जंगल की आग के कारण होने वाली आर्थिक हानि का आंकलन आम तौर पर केवल लकड़ी की कीमत के संदर्भ में, खड़े पेड़ों (प्राकृतिक या रोपे गए) के नुकसान के लिए किया जाता है।”
जैव-विविधता पर जंगल की आग के प्रभाव को बहुत कम करके आंका जाता है। दिसंबर 2016 में राज्यसभा में प्रस्तुत एक संसदीय समिति की रिपोर्ट में पाया गया कि वन्यजीवों के नुकसान का हिसाब नहीं रखा जा रहा था। यह रिपोर्ट में वनवासियों और वन उपज पर निर्भर लोगों की आजीविका के नुकसान को भी समझा गया है।
पर्यावरण अर्थशास्त्री और बोइस स्टेट यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर, जयश पौडेल ने ‘Mongabay India’ के साथ बातचीत में कहा – “भारत में बढ़ती आग का आर्थिक प्रभाव महत्वपूर्ण है।”
उन्होंने कहा – “भारत में जंगल की आग के आर्थिक प्रभाव की व्यापकता, बहुत से सामाजिक-आर्थिक कारणों पर निर्भर करेगी, जिसमें आग के स्थानों और वनवासियों के निवास स्थानों के बीच की दूरी, भूमि का कार्यकाल और भूमि कवर की किस्म शामिल हैं। मैं वनवासियों के जीवन पर भी एक बड़ा आर्थिक प्रभाव देखता हूँ। वायु प्रदूषण अलग-अलग तरीकों से फसलों और पेड़ों को नुकसान पहुंचा सकता है।”
मनीष चंद्र मिश्रा मध्य प्रदेश स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
यह कहानी सबसे पहले ‘Mongabay India’ में प्रकाशित हुई थी।
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