मुहर्रम का मातम – ग्रामीण तरीके से
जब डिजिटल माध्यम से आमंत्रण एक रिवाज बन गया है, क्या आप जानते हैं कि घर-घर जाकर मौखिक आमंत्रण की प्राचीन परम्परा अब भी जारी है? यही एकमात्र रिवाज नहीं है, जो यूपी के गांवों को अलग करता है
जब डिजिटल माध्यम से आमंत्रण एक रिवाज बन गया है, क्या आप जानते हैं कि घर-घर जाकर मौखिक आमंत्रण की प्राचीन परम्परा अब भी जारी है? यही एकमात्र रिवाज नहीं है, जो यूपी के गांवों को अलग करता है
निराशापूर्ण काले कपड़े पहने, अपने कंधों तक के लम्बे बालों के साथ, 53 वर्षीय शताब किसी अन्य ग्रामीण की तरह पास से निकल सकते हैं। लेकिन उनके हाथ में एक आयताकार काला झंडा उन्हें अलग करता है। जैसे उनकी जोरदार और उदास मध्यम आवाज, जो उनके आपके दरवाजे तक आने से पहले ही आप तक पहुंच जाती है।
श्रद्धापूर्वक ध्वज को पकड़े हुए, शताब मातम मनाने वालों की एक धार्मिक सभा के लिए मौखिक निमंत्रण देते हुए घर-घर जाते हैं। मौखिक निमंत्रण देने की परम्परा, ‘बुलाओ’, राज्य की राजधानी लखनऊ से लगभग 100 किमी दूर स्थित, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर, जायस की एक विशिष्ट सांस्कृतिक विशेषता है।
मातम के लिए उदास, मध्यम आमंत्रण
शताब मुहर्रम के दौरान 68 दिनों की ‘अज़ादारी’ (मातम) के हर दिन ‘मजलिस’ (धार्मिक सभा) में शामिल होने के लिए मातम मनाने वालों को आमंत्रित करने के एक पवित्र मिशन पर हैं। हर साल मुसलमान पैगंबर मोहम्मद के पोते, इमाम हुसैन की याद को दर्ज करते हैं, जो लगभग 1,400 साल पहले इराक में अत्याचार और अन्याय के खिलाफ लड़ाई में मारे गए थे।
शोक जुलूसों में छाती पीटने के साथ मातम, विलाप और शोकगीतों के भावपूर्ण पाठ शामिल हैं। ये जुलूस मुहर्रम के दसवें और चालीसवें दिन होते हैं। धार्मिक सभाओं का आयोजन निजी आवासों और धार्मिक स्मारकों पर किया जाता है। उनमें भाग लेना एक पाक जिम्मेदारी मानी जाती है।
शताब पिछले 39 साल से ‘बुलाओ’ की जिम्मेदारी निभा रहे हैं, जबकि कई पीढ़ियों से उनका परिवार यह काम करता आ रहा है। जब उनके पिता बीमार हो गए, तो उन्हें उनकी जिम्मेदारी लेनी पड़ी। तब वे केवल छठी कक्षा में थे।
पीढ़ियां परम्पराओं को जीवित रखती हैं
शताब के अनोखे अंदाज में दिए गए मौखिक आमंत्रण में मेजबान का नाम, सभा का दिन, स्थान और समय शामिल होते हैं। मेजबान का नाम हमेशा के लिए बरकरार रखा जाता है, यहां तक कि उसकी मृत्यु के दशकों बाद भी।
87 वर्षीय शमीम इक्तिदार, जिनके पिता की 1965 में मृत्यु हो गई थी, लेकिन उन्हें अब भी उनके द्वारा शुरू किए धार्मिक आयोजन का मेजबान घोषित किया जाता है, कहते हैं – “यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जो लोग धार्मिक सभा में मातम मनाने वालों के लिए दरियां बिछाते हैं, वे कभी नहीं मरते।”
इक्तिदार खुश हैं कि उनके गृहनगर में यह परम्परा डिजिटल तकनीक के इस युग में भी जारी है।
कवियों और विद्वानों की भूमि माने जाने वाला जायस, भारत में अज़ादारी के जुलूस निकालने वाले सबसे पुराने स्थानों में से एक है, जो 1,000 साल से ज्यादा पुराना है।
नई दिल्ली स्थित एनीमेशन विशेषज्ञ, शुबेर नक़वी जैसे कई युवा शहरी, सदियों पुरानी संस्कृति को जारी रखते हुए, मातम मनाने के लिए अपने गाँव लौटने की कोशिश करते हैं।
वह कहते हैं – “मैं सभी को सूचित रखने के लिए एक सोशल मीडिया पेज चलाता हूं। मैं हर साल मुहर्रम के दौरान इन रस्मों में हिस्सा लेने के लिए यहां आकर रहता हूं। कहीं और बस गए मेरे परिवार के कई सदस्य भी ऐसा ही करते हैं।”
विशिष्ट ग्रामीण रिवाज सद्भाव का प्रतीक हैं
इस परम्परा से जुड़ी अन्य विशिष्ट प्रथाएं, ग्रामीण उत्तर प्रदेश में पाई जाती हैं। चालीसवें दिन का जुलूस सबसे बड़े जुलूसों में से एक होता है और उस स्मारक से शुरू होता है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह सम्राट अकबर के शासनकाल में बनाया गया था।
जुलूस शुरू होने से पहले, इमाम हुसैन के मकबरे के प्रतिरूप को, उनके सेना कमांडर के प्रतीक चिन्ह का इस्तेमाल करके, सलामी दी जाती है।
नकवी कहते हैं – “मातम गीत फारसी में पढ़े जाते हैं।”
मातम मनाने वाली महिलाएं, एक दुल्हन के इस्तेमाल के लिए, कपड़े से ढकी बड़ी बेंत की टोकरियों में मेहँदी और दूसरे सामान लेकर चलती हैं। इमाम हुसैन को उनके नवविवाहित भतीजे के युद्ध में मारे जाने के लिए, वे अपनी स्थानीय बोली में संवेदना व्यक्त करते भावपूर्ण शोकगीतों का पाठ करती हैं।
ऐसी अनोखी खूबियों के उदाहरण, उत्तर प्रदेश के ज्यादातर छोटे शहरों में मौजूद हैं। सीतापुर जिले के खैराबाद कस्बे में, साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में, लकड़ी के 52 खंभों पर टिका एक ढांचा बनाने की परम्परा है। वहीं हरदोई जिले के बिलग्राम कस्बे में जुलूस मुगल काल का है।
इन परम्पराओं की खूबसूरती और महत्व यह है कि सभी जातियों, संप्रदायों और धर्मों के लोग जुलूस में भाग लेते हैं और सांस्कृतिक मेल एवं साम्प्रदायिक सौहार्द की दिशा में मातम को एक स्थानीय विरासत प्रदान करते हैं।
कुलसुम मुस्तफा लखनऊ स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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