अखरोट बाजार – एक टेढ़ी खीर
शहरी भारत को अखरोट बहुत पसंद है। लेकिन इस स्वादिष्ट "सुपर फ़ूड” (शानदार भोजन) को उगाने में बहुत मेहनत लगती है और कश्मीरी अखरोट उत्पादक किसान सस्ते विदेशी आयात से हार रहे हैं।
शहरी भारत को अखरोट बहुत पसंद है। लेकिन इस स्वादिष्ट "सुपर फ़ूड” (शानदार भोजन) को उगाने में बहुत मेहनत लगती है और कश्मीरी अखरोट उत्पादक किसान सस्ते विदेशी आयात से हार रहे हैं।
श्रीनगर के हरे-भरे बाहरी इलाकों में, जहां पतझड़ आने के साथ हरे पेड़ पीले हो जाते हैं, गुलाम मोहम्मद डार अपने पैतृक अखरोट के बाग में प्रहरी की तरह खड़े हैं। जैसे ही कोई कौआ या अखरोट तोड़ने वाला दूसरा कोई परेशान करने वाला पक्षी उनके 17 पेड़ों में से किसी के पास आता है, वह अपने हाथों को लहरा कर और चिल्लाकर भगा देते हैं।
यह कभी न खत्म होने वाला काम है, लेकिन इन दिनों यह उनकी चिंता का कारण नहीं है।
शहरी भारत में अखरोट के तेजी से लोकप्रिय होने के बावजूद, विशेष रूप से “सुपर फूड” नाम दिए जाने के बाद, स्थानीय उत्पादकों के लिए यह एक कठिन बाजार है। हालांकि डार सैकड़ों किलोग्राम अखरोट का उत्पादन करते हैं, लेकिन ऐसा करना महंगा होता जा रहा है, और उत्पादन लागत बढ़ने से उनकी आय में सेंध लग रही है।
डार कहते हैं – “हर साल मुझे अच्छे लाभ की उम्मीद होती है। हालांकि बाजार अच्छा है, लेकिन यह कभी भी उत्पादकों के पक्ष में नहीं होता।”
देश के 90% से ज्यादा अखरोट कश्मीर से तीन किस्मों में आता है – वोंथ, कागज़ी और बुर्जुल। लेकिन अब कश्मीर घाटी के डार जैसे अखरोट उत्पादक हजारों किसान, अच्छी मांग के बावजूद इसे लाभदायक फसल नहीं पा रहे हैं। कई लोग अखरोट की खेती छोड़ने की सोच रहे हैं।
डार ने अफ़सोस जताया – “मैं अपने पिता की मृत्यु के बाद लगभग एक दशक से इन पेड़ों की देखभाल कर रहा हूँ। लेकिन धीरे-धीरे मेरी इस पुश्तैनी आजीविका में रुचि कम होती जा रही है।”
कठोर-अखरोट, कठोर-उपज
अखरोट की फसल की छोटी अवधि, अगस्त के आखिरी हफ्ते में शुरू होती है और अक्टूबर के अंत तक चलती है। हालांकि अखरोट के बागों का रखरखाव सेब या चेरी जैसे दूसरे फलों के मुकाबले बहुत कम है, थ्रेशिंग द्वारा अखरोट की कटाई के लिए बहुत मेहनत लगती है और इसलिए महंगा है।
परंपरागत रूप से ‘चनावेल’ के रूप में मशहूर, कुछ कुशल अखरोट झाड़ने वाले लोग, बड़ी शाखाओं पर चढ़ते हैं और पेड़ के छत्र को झाड़ते हैं, जो पतली-पतली टहनियों से बने पतले होते लकड़ी के स्तम्भ पर टिकी होती है। हरे गूदे से ढके, गिरते हुए अखरोट आगे की प्रोसेसिंग के लिए बोरियों में इकट्ठे किए जाते हैं। किसानों के अनुसार यह प्रक्रिया महंगी है।
श्रीनगर के बाहरी इलाके में निशात के एक अखरोट के व्यापारी, मोहम्मद शफी ने VillageSquare.in को बताया – “झड़ाई करने वाले दो लोगों को एक दिन का लगभग 3,000 रुपये भुगतान करना पड़ता है। इसके अलावा, फल इकट्ठा करने के लिए तीन या चार मजदूर लगाने पड़ते हैं।”
पारम्परिक चाकू से किसान या कुशल मजदूर, फल के हरे गूदेदार छिलके को छील देते हैं। इसके बाद खोल वाले अखरोट को बाजार में भेजे जाने से पहले, कई दिनों तक धूप में सुखाया जाता है।
इनाम का लंबा इंतज़ार
यदि पेड़ द्वारा घेरी जाने वाली बड़ी जगह को छोड़ भी दिया जाए, अखरोट की खेती में एक बड़ी चुनौती इसके तैयार होने की लंबी अवधि है। अखरोट के पेड़ को एक बड़ी छतरी और फल विकसित करने में 15 से 17 साल लगते हैं।
यह एक कठोर सच्चाई है जिसका सामना कई अखरोट किसानों को करना पड़ता है, क्योंकि सेब की खेती ज्यादा आकर्षक विकल्प है। हालांकि दूसरी फसलों के तैयार होने की अवधि कम होती है, लेकिन आलू बुखारे जैसे फल के उत्पादकों को भी बाजार की अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है। फिर भी, अखरोट उत्पादक किसान ज्यादा प्रभावित होते हैं।
श्रीनगर के बाहरी इलाके के अखरोट उत्पादक किसान, अब्दुल करीम खटाना कहते हैं – “लोग सेब और दूसरे फलों से अच्छी कमाई कर रहे हैं, जिनकी अखरोट के मुकाबले तैयार होने की अवधि कम है और संभावनाएं बेहतर होती हैं। फल पाने के लिए बहुत लंबा इंतजार करना पड़ता है। ऐसे हालात में अखरोट की खेती जारी रखना मुश्किल है।”
राज्य में 60,000 टन अखरोट का उत्पादन होता है। फिर भी, हजारों टन अखरोट के उत्पादन और खपत के बीच, किसानों को इस बात का मलाल है कि आय का केवल एक छोटा हिस्सा उन तक पहुंचता है।
खटाना कहते हैं – “व्यापारी हमसे बहुत कम पैसे में अखरोट खरीदते हैं और उसे किलोग्राम के हिसाब से अच्छी कीमत पर बेचते हैं। मैं कई वर्षों से 150 – 200 रुपये प्रति सैंकड़ा के हिसाब से अखरोट बेच रहा हूं।”
खुदरा और थोक व्यापारी कम लाभ के लिए न सिर्फ ऊंची लागत को, बल्कि ढुलाई खर्च में वृद्धि और आयात के अखरोट से कड़ी प्रतिस्पर्धा को भी जिम्मेदार ठहराते हैं।
किसानों द्वारा सरकारी मदद की मांग
जहाँ भारत जर्मनी, इटली और एक दर्जन अन्य देशों को अखरोट का निर्यात करता है, 2020-21 में 1,070 टन निर्यात किया गया, वहीं यह चिली, यूएसए, यूएई, वियतनाम और अफगानिस्तान से अखरोट का आयात भी करता है। अफगानिस्तान में मौजूदा राजनीतिक माहौल के कारण अफगान अखरोट के आयात में रुकावट के साथ, उम्मीद की एक किरण है कि भारत में इस साल त्यौहार के मौसम में किसानों को बेहतर लाभ मिलेगा।
लेकिन लम्बे समय के लिए कश्मीरी अखरोट उत्पादककिसानों को लगता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) ही समाधान है, विशेष रूप से महामारी से बाजार में अनिश्चितता और पर्यटकों की संख्या कम होने के कारण, उन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ रही है।
निशात, श्रीनगर के अखरोट व्यापारी, मुदासिर अहमद शेख कहते हैं – “अधिकारियों को इस विरासती फसल के हितों की सेब, पश्मीना और कालीन की तरह रक्षा करनी चाहिए और उन्हें अखरोट के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करना चाहिए।”
नई किस्में प्रस्तुत कर सकती हैं नई उम्मीद
लेकिन विज्ञान सबसे आशापूर्ण समाधान प्रस्तुत कर सकता है।
शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी (SKUAST), शालीमार के फल विज्ञान विभाग ने दो ग्राफ्टेड किस्में, हमदान और सुलेमान, जारी की हैं, जिनकी तैयार होने की अवधि बहुत ही कम है, केवल तीन से चार साल। इतना ही नहीं, पारम्परिक पेड़ों की 18 वर्ग मीटर की छतरी के मुकाबले नई किस्मों की छतरी लगभग 9 वर्ग मीटर मात्र है।
अभी तक किसानों का कहना है कि नई ग्राफ्ट की गई इन किस्मों की पैदावार कम है। लेकिन SKUAST के एक प्रोफेसर, अब्दुल मजीद का कहना था कि विभाग उसे बढ़ाने पर काम कर रहा है।
नासिर यूसुफी कश्मीर में रहने वाले पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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