सोने की तलाश में
वे जिस सोने को वे बर्तन के द्वारा इकठ्ठा करते हैं, उससे उनके जीवन में चमक नहीं आती। फिर भी, काम की कमी और खेती के लिए सीमित पानी होने के कारण, ग्रामीण सोने की तलाश में रहते हैं।
वे जिस सोने को वे बर्तन के द्वारा इकठ्ठा करते हैं, उससे उनके जीवन में चमक नहीं आती। फिर भी, काम की कमी और खेती के लिए सीमित पानी होने के कारण, ग्रामीण सोने की तलाश में रहते हैं।
भारत के कस्बों और शहरों में जहां इस साल के त्योहारी सीजन में, चमकदार सोने के गहने खरीदने के लिए उत्सुक ग्राहकों की भीड़ उमड़ रही है, वहीं पश्चिम बंगाल के एक दूरदराज के गांव में ग्रामीणों का एक समूह इस कीमती धातु के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है।
मिलिए, पुरुलिया जिले के अंकरो गांव के सोना इकठ्ठा करने वाले लोगों से।
हालांकि “सोना” शब्द से पीले रंग की चमक, धन और वैभव के विचार कौंधते है, लेकिन सोना ढूंढकर जुटाने वाले गरीबी में जीवन जीते हैं। पुरुष और महिलाएं दोनों, अपने भूखे बच्चों के लिए भोजन जुटाने के लिए बेताबी से कुछ सोने के टुकड़े खोजने के लिए, अपनी स्थानीय नदी के तले को खंगालते हैं, ।
वे ‘स्वर्णरेखा’ नदी, जिसका अर्थ ही सोने की लकीर है, की एक सहायक, ‘टोटको’ नदी की गाद (नीचे जमा गारा) में से सोने की धूल (dust) के लिए कई-कई घंटे बिताते हैं।
जंगल के किनारे और धान के खेतों के बीच स्थित, राज्य की राजधानी कोलकाता से लगभग 350 किलोमीटर दूर, ‘एंकरो’ के ग्रामवासी अपने परिवार को चलाने और अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सोने की धूल पर निर्भर हैं।
मिट्टी छानने की कठोर दैनिक दिनचर्या
आम तौर पर पेड़ की छाल से बनी एक ट्रे, एक बेलचा और एक छेनी लेकर, लखी महतो गांव से दो किलोमीटर की पैदल यात्रा शुरू करती है। संकरे रास्तों और धान के खेत के बांधों को पार करते हुए, जो अक्सर कीचड़ और फिसलन भरे होते हैं, वह हर सुबह नदी के किनारे जाती है।
नदी पर पहुँचने के बाद, वह लकड़ी की ट्रे का तीन-चौथाई हिस्सा नदी के तल से मिट्टी और कीचड़ से भर लेती है और फिर ट्रे को एक तरफ से दूसरी तरफ घुमाते हुए, पानी के नीचे रखती है। यदि उसमें सोने की डली हुई, तो ट्रे के निचले भाग में टिक जाती है। ये कण बेहद छोटे होते हैं और उनको तलाशने में आंखों पर बहुत जोर पड़ता है।
एक दशक पहले अपने पति को खोने के बाद से सोने की धूल तलाशने वाली 45-वर्षीय लखी महतो का कहना है – “मेरे पास कृषि भूमि नहीं है। यहां आजीविका के कोई अवसर नहीं हैं।”
गर्व भरी आवाज में उसने कहा – “लोग पूछते हैं कि मैं यह कमर तोड़ने वाला काम क्यों करती हूं। मुझे क्या करना चाहिए? शहर के लोग हमें नीची नज़र से देख सकते हैं। लेकिन इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। इस काम से मैं अपनी दोनों बेटियों को पढ़ा रही हूं। उनमें से एक इंजीनियरिंग पढ़ रही है।”
खेतिहर मजदूर के रूप में काम करने वाले, 45-वर्षीय विश्वरंजन महतो ने स्वीकार किया कि चिलचिलाती धूप में लगातार 8-10 घंटे काम करने से पीठ दर्द और आंखों में खिंचाव होता है।
उत्पत्ति को समझने के लिए अध्ययन
चार दशकों से ज्यादा समय से यह काम कर रहे, 60-वर्षीय फुरकी महतो कहते हैं – “हमें पहली बार इसके बारे में 1980 के दशक में पता चला, जब बाहरी लोगों ने नदी के तल से सोने की धूल इकठ्ठा की। कुछ दिनों के बाद वे चले गए और हम शुरू हो गए।”
भूवैज्ञानिकों के अनुसार, अध्ययनों से पता चला है कि नदी तलछट में पाए जाने वाली सोने की डली और लच्छे बड़े पैमाने पर तलाश के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं हैं।
जादवपुर विश्वविद्यालय के भू-विज्ञान विभाग के सहायक प्रोफेसर, सुशांत चौधरी कहते हैं – “लोगों का मानना है कि पुराने समय में नदी के कुछ स्थानों पर सोने के कण पाए जाते थे। इसका ‘दलमा हिल्स’ की ज्वालामुखीय चट्टानों कुछ सम्बन्ध हो सकता है, क्योंकि नदी इससे होकर गुजरती है।”
वह बताते हैं – “ये ढीले, बहुत महीन सोने की डली हैं, जिन्हें आम तौर पर ‘प्लेसर डिपॉजिट्स’ कहा जाता है, जिनका नदी के बहाव, गुरुत्वाकर्षण बल और तल में जमा गाद की किस्म के साथ एक महत्वपूर्ण संबंध है।”
चौधुरी कहते हैं – “पुरुलिया में कुछ स्थानों पर स्वर्णरेखा नदी के साथ-साथ सोने के कण हैं, लेकिन वे छोटे थे और खनन के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं थे। फिर भी स्थानीय गरीब लोग जोखिम उठा कर पारम्परिक तरीके से इसे छान कर इकठ्ठा कर रहे हैं। भूवैज्ञानिक अभी भी स्रोत चट्टान ढूंढ निकालने और सोने के कणों को प्राप्त करने के तरीके तलाशने के लिए शोध कर रहे हैं।”
मामूली आमदनी के बावजूद छानना
जैसे ही लखी महतो ने अपनी ट्रे घुमाई, उसे दो छोटे कण मिले और ऐसा ही दो महिलाओं को भी मिले, जो उसके साथ कण ढूंढ रही थीं।
अष्टमी महतो कहती है – “हम उन्हें तुरंत नहीं बेचते, क्योंकि वे बहुत छोटे हैं। हम इन्हें सप्ताह में एक बार स्थानीय सोने की दुकानों पर बेचते हैं, जब हम कुछ और मिल जाते हैं। हम हफ्ते में 1,200 रुपये तक कमा लेते हैं और कभी कुछ भी नहीं।
वह बताती हैं – “1980 के दशक में, हमने एक दिन में 2,000 रुपये या 3,000 रुपये भी कमाए, जो उस समय बहुत अच्छा पैसा होता था। लेकिन इसकी मात्रा मुख्य रूप से चेक डैम के निर्माण के कारण कम हो रही है, जो मिट्टी को अवरुद्ध करता है। फिर भी हम आजीविका के अवसरों की कमी और कृषि के लिए पानी की कमी के कारण ऐसा करते हैं।”
ग्रामीण वर्षा-आधारित धान की खेती करते हैं, क्योंकि गर्मी के दिनों में टोटको नदी सूख जाती है, जिससे बड़े पैमाने पर दूसरी फसलें उगाना असंभव हो जाता है।
बिस्वरंजन महतो का कहना था कि उनके समुदाय के ज्यादातर पुरुष मजदूर के रूप में काम करने के लिए दूसरे राज्यों में चले जाते हैं, जबकि महिलाएं सोने की तलाश करती हैं। लेकिन उसके जैसे कुछ पुरुष यहीं रह जाते हैं।
वह कहते हैं – “जब घंटों की खोज से कुछ नहीं मिलता, तो बहुत निराशा होती है। लेकिन हमारे पास कोई चारा नहीं है। कोई सरकारी अधिकारी हमारी दुर्दशा के बारे में जानने के लिए हमसे मिलने नहीं आया।
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, का कहना था कि राज्य सरकार दूरदराज के गांवों के गरीब लोगों के लिए वैकल्पिक आजीविका की दिशा में कोशिश कर रही है।
अधिकारी कहते हैं – “हम निश्चित रूप से उनके लिए आजीविका की कोशिश करेंगे, ताकि उन्हें सोना ढूंढने के कठोर काम से मुक्ति मिले।”
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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