‘अला कुरुम्बा’ जनजातियों को कला के प्रति रुझान अपने पूर्वजों से विरासत में मिला, जो रोजमर्रा की जिंदगी शैलचित्रों (रॉक पेंटिंग) के रूप में व्यक्त करते थे। लेकिन जब ऐसे गिने-चुने कलाकार ही बचे हैं, वे इस सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को जीवित रखने के लिए बेताब हैं।
कुछ साल पहले तक तमिलनाडु के दूरदराज के गांव बावियूर तक जाने के लिए कोई सही सड़क नहीं थी, जहां एक आदिवासी समुदाय की कहानी शैलचित्रों के रूप में आगे बढ़ाई है।
नीलगिरी जिले के कोटागिरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर, इस आदिवासी बस्ती तक आज भी बहुत कम बसें पहुंचती हैं। आज ऊँची नीची सड़क हरे-भरे चाय के बागानों से होकर बावीयूर तक जाती है, जहां आदिवासी समुदाय अला कुरुम्बा रहता है। वे एक दूसरे गाँव वेल्लराइकोम्बु में भी रहते हैं, जो प्राचीन शैलचित्रों का घर है।
अला कुरुम्बा जनजातियों की पेंटिंग संस्कृति तब शुरू हुई, जब उनके पूर्वजों ने लगभग 4,000 साल पहले शैलचित्र बनाए।
यह कला इन आदिवासी समुदायों के जीवन को चित्रित करती है और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। प्रत्येक पेंटिंग में एक पूरी कहानी होती है – अला कुरुम्बा की संस्कृति की एक यादगार।
फिर भी, आज केवल पाँच कुरुम्बा कलाकार ही इस कला में लगे हुए हैं।
पी बालासुब्रमण्यम 24 साल से पेंटिंग करते हैं, जैसे उनके पिता और दादा उनसे पहले कर रहे हैं। यह कला उनकी एकमात्र आजीविका है। जहां उनके पूर्वज चट्टानों पर पेंटिंग करते थे, वे कागज और कैनवास पर पेंटिंग करते हैं।
उन्हें और दूसरे चार कलाकारों को कागज़ और कैनवास खरीदने के लिए क़रीब 50 किलोमीटर दूर कुन्नूर जाना पड़ता है।
बालासुब्रमण्यम कहते हैं – “पहले, त्योहारों के समय मिट्टी के घरों पर भी पेंटिंग की जाती थी।”
बालासुब्रमण्यम और एक दूसरा कुरुम्बा कलाकार कृष्णन, कला को जीवित रखने की उम्मीद में अपने गांव के बच्चों को सीखा रहे हैं।
वह कहते हैं – “हम चाहते हैं कि इन चित्रों के माध्यम से वे अपनी संस्कृति को समझें और जानें।”
जीवन के प्रतिबिंब के रूप में कला
बालासुब्रमण्यम ने VillageSquare.in – “इन पेंटिंग्स में बहुत सी कहानियां हैं। जैसे समुदाय द्वारा आंवला या शहद जैसे वन उत्पाद इकठ्ठा करते हुए समुदाय।”
कुछ चित्रों में पहेलियां हैं। दूसरे चित्रों में परम्पराओं और आदतों की कहानियां हैं।
शहद इकठ्ठा करने की कहानी ऐसी ही एक अच्छी तरह से दस्तावेजीकृत परंपरा है।
बालासुब्रमण्यम कहते हैं – “शहद निकालने के लिए बाहर जाने से पहले, हम जंगल में जाते हैं जहां देवता हैं, और पूजा करते हैं, ताकि हमें कोई नुकसान न हो।”
मधुमक्खी पालक आदिवासी एक खास तरह की लकड़ी इकट्ठा करके इसे देवता के सामने अगरबत्ती के रूप में जलाते हैं और फिर जंगल में प्रवेश करते हैं।
बालासुब्रमण्यम की बेटी कल्पना ने अपने पिता से ऐसी कई कहानियां सुनी हैं।
वह याद करती है – “शहद तोड़ने वाले जाने से पहले घर में किसी को नहीं बताते। वे छत्ते को धुआं देने से पहले पूजा करते हैं, ताकि मधुमक्खियां उन्हें डंक न मारें। जब वे काम ख़त्म कर लेते हैं और वापस आने वाले होते हैं, तो एक ही गीत गाते हैं। समुदाय का सबसे बुजुर्ग सदस्य रक्षक के रूप में सबसे पीछे चलता है। शहद इकट्ठा करने के बाद, वे पीछे मुड़कर नहीं देखते।”
उनके जीवन के इन सभी पहलुओं को उनकी कला में उत्कृष्ट रूप से चित्रित किया गया है। यहां तक कि वन्यजीवों की गहन बारीकियों, जैसे कि पेड़ की कंदरा में एक पक्षी, हिरण, हॉर्नबिल को इन चित्रों में विवरण के रूप में देखा जा सकता है। वे जिस भी पेड़ पर पेंटिंग बनाते हैं, वह एक ऐसा पेड़ होता है, जिसे वे अपने रीति-रिवाजों के कारण जानते हैं और उनसे नाता बनाते हैं।
बालासुब्रमण्यम का मानना है कि इन चित्रों के माध्यम से उनकी कहानियों को कुरुम्बा लोगों द्वारा जारी रखा जाना चाहिए, क्योंकि यह कला उनमें निहित है और यह जीवन उनके पूर्वजों ने जीया।
बालासुब्रमण्यम का मानना है कि इन चित्रों के माध्यम से उनकी कहानियों को कुरुम्बा लोगों द्वारा जारी रखा जाना चाहिए, क्योंकि यह कला उनमें निहित है और उनके पूर्वज इस तरह से जीवन जीते थे।
प्रकृति से लिए गए रंग
असल में उनकी कला के लिए रंग भी उनके जंगल के पेड़ों से आता है।
रंग के लिए सामग्री इकट्ठा करने के लिए जंगल में जाने से पहले, समुदाय के लोग अपने अभिभावक देवता की पूजा करते हैं। उनके चित्रों में भी समुदाय को देवता की पूजा करते हुए देखा जा सकता है।
गर्मियों में, जब वेंगई के पेड़ (घृणा वृक्ष) से एक तरल निकलता है, तो कलाकार उस तरल को इकट्ठा करने के लिए पेड़ के नीचे नारियल के खोल रख देते हैं। इस एक पेड़ से उन्हें तीन रंग मिलते हैं:- पीला, भूरा और काला।
गहरे और हल्के हरे रंग दूसरे पौधों की पत्तियों से प्राप्त होते हैं। इन पत्तों का पीसकर बिना पानी इस्तेमाल किए पेस्ट बना लिया जाता है।
कला को टिकाऊ बनाना
बालासुब्रमण्यम ने जोर देकर कहा – “जब कुछ लोग हमारी कुरुम्बा कला की आकृतियां देखते हैं, तो वे इसकी तुलना वारली कला से करते हैं। लेकिन यह वारली कला नहीं है। हमारी कला हमारे आदिवासी समुदाय की कहानियां कहती है। कभी-कभी लोग इन पेंटिंग्स को कॉपी कर लेते हैं। लेकिन एक या दो आकृतियाँ बनाने से वह कुरुम्बा कला नहीं बन सकती।
वह कहते हैं – “राज्य सरकार वारली पेंटिंग बनाने वालों को सहायता प्रदान करती है, यह वारली कला के लोकप्रिय होने की सबसे बड़ी सम्भावना। यदि तमिलनाडु में हमारे लिए इस तरह के उपाय किए जाते हैं, तो इससे हमें फायदा होगा।”
कोयंबटूर के जाने-माने समकालीन कलाकार, अरविंद सुंदर का मानना है कि प्राचीन कला के संरक्षण के लिए पहला कदम जागरूकता पैदा करना है।
सुंदर कहते हैं – “वारली पेंटिंग स्कूल के पाठ्यक्रम में हैं, यह लोकप्रिय है और एक आम आदमी भी इसके बारे में जान सकता है।”
वह ज्यादा प्रचार करने का सुझाव देते हैं, जैसे कि कुरुम्बा कला को प्रदर्शित करने वाली एक कम लागत वृत्तचित्र, इस विशेष आदिवासी कला में ज्यादा से ज्यादा लोगों की दिलचस्पी के लिए एक अच्छी शुरुआत हो सकती है।
उन्होंने कहा – “कलाकार सार्वजनिक मंचों पर अपनी कला के बारे में बात कर सकते हैं और अपने चित्रों की प्रदर्शनी भी लगा सकते हैं।”
अपनी पुश्तैनी कला में गहरी रुचि के कारण, कल्पना और उनके भाई भरत ने अपने पिता से यह कला सीखी है।
कार्यशालाओं के माध्यम से वे अपने समुदाय के बच्चों और किशोरों को इस कला में आकृष्ट करने की कोशिश करते हैं।
कल्पना ने अपने कबीले की कला के प्रेम को फैलाने के लिए अथक कोशिश की है। वह नियमित रूप से अपने पूर्वजों की कहानियों के चित्र बनाती है। वह उनके अतीत की कल्पना करती है और उनकी कहानियों के चित्र बनाती है।
वह कहती है – “कुछ तत्वों को चित्रित करने के मेरे और मेरे पिता के तरीके में थोड़े अंतर हैं। जैसे कि झाड़ू या घर के आकार में अन्तर।”
अपने पिता की तरह, उसका भी दृढ़ विश्वास है कि यह ज्ञान उनके आदिवासी समुदाय के युवाओं को दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे अपने पूर्वजों और उनके जीवन से अपना सम्बन्ध देख पाएंगे।
बचे हुए पांच कुरुम्बा कलाकारों को उम्मीद है कि सरकार उनकी कला को आगे बढ़ाएगी और सहयोग देगी।
बालासुब्रमण्यम कहते हैं – “कला के कुरुम्बा की अगली पीढ़ी तक पहुंचने के लिए, हमारी कहानियों का रंग छायांकन तक दास्ताजीकरण किया जाना चाहिए। यदि सरकार हमें थोड़ी सी जगह देती है, तो हम और ज्यादा युवाओं को प्रशिक्षित कर सकते हैं।”
शारदा बालासुब्रमण्यम कोयंबटूर स्थित विकास पत्रकार हैं और उनका इस कहानी में विषयों से कोई संबंध नहीं है।
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