घर के बने, जैविक दुग्ध उत्पादों की बढ़ती मांग ने कश्मीरी ग्रामीणों को प्रोत्साहन दिया है, जो कभी दूध को तरल रूप में ही बेचकर अपनी जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करते थे। अब दही, मक्खन और पनीर का कारोबार फलफूल रहा है।
धुंध से ढके, कश्मीरी गांव लाधु में रोज सुबह, गुलाम मोहम्मद लोन दो बड़े डिब्बे लेकर एक घर से दूसरे घर जाते हैं।
अधेड़ उम्र का यह ग्रामीण, अपने गांव और उसके आसपास के पशुपालकों से अतिरिक्त दूध खरीदता है। वह अतिरिक्त दूध से पनीर बनाकर अपना जीवन यापन करता है।
वह उन सैकड़ों कश्मीरियों में से एक है, जो हाल ही में घाटी में घर के बने जैविक दुग्ध उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण, मूल्य-वर्धित दुग्ध पदार्थ बनाने लगे हैं।
कैल्शियम और फॉस्फोरस का एक समृद्ध स्रोत होने के कारण, पनीर एक स्वादिष्ट, स्वस्थ प्रोटीन है और उत्तर भारत में कई व्यंजनों में पाया जाता है। लेकिन ज्यादा से ज्यादा लोग स्थानीय रूप से बना पनीर चाहते हैं। यही दही के लिए भी है, जो ताजा बनाने पर मिट्टी के बर्तनों में बेचा जाता है, जिससे कुछ अतिरिक्त स्वाद जुड़ता है, जिसे बहुत से लोग पसंद करते हैं।
ताजा पनीर की मांग ने कुटीर उद्योग को गति दी
अतिरिक्त उत्पादन के साथ इस बढ़ती मांग का मतलब है कि बहुत से पशुपालक, जो कभी तरल दूध बेचने पर निर्भर थे, अन्य दुग्ध उत्पादों से अतिरिक्त आय प्राप्त कर रहे हैं।
लोन के घर से लगभग 30 किलोमीटर दूर, 45-वर्षीय अब्दुल अहद भट, बाहरी श्रीनगर की संकरी गलियों से दूध के डिब्बों से लदी अपनी साइकिल चलाते हैं। वह दूध शाम को खरीदकर, सुबह बाजार में जमदूध या दही बेचता है।
भट कहते हैं – “मेरी पत्नी और बेटी दूध उबालने में घंटों बिताती हैं। फिर वे इसे मिट्टी के बर्तनों में डालती हैं।” उसमें कुछ बूंद जामन (दही जमाने के लिए इस्तेमाल होने वाली दही) डालने के बाद, दही को जमने के लिए, बर्तनों को रात भर के लिए छोड़ दिया जाता है।
पांच साल पहले लोन बाजार में तरल दूध बेचता था। लेकिन दूध का उत्पादन बढ़ने से प्रतिस्पर्धा और बढ़ गई। ऊपर से, दुकानदारों ने प्रोसेस्ड, ब्रांडेड दूध का स्टॉक करना शुरू कर दिया और एक दिन उन्होंने अचानक उससे दूध खरीदना बंद कर दिया।
एक और दुकानदार था, जो लोन की मदद के लिए आगे आया। उसने लोन को कुछ किलो दही सप्लाई करने को कहा। लोन कहते हैं – “इस तरह मैंने दही बनाना और बेचना शुरू किया। दही की अच्छी मांग है।”
वह रोजाना एक किलो और आधा किलो दही से भरे बर्तन की लगभग 100 यूनिट बेचते हैं। वह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल, शालीमार मुगल गार्डन के पास सड़क किनारे बने भोजनालयों को भी आपूर्ति करते हैं।
एक ग्राहक, फ़याज़ अहमद का कहना था कि इसके कुदरती और जैविक होने के अलावा, इसके स्वाद के कारण, उन्हें मिट्टी के बर्तन में दही पसंद है।
मूल्यवर्धन का आर्थिक महत्व
शालीमार से थोड़ी दूर, ‘दारा’ गांव के एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति, मोहम्मद असलम खटाना ने घी बनाना और बेचना शुरू कर दिया है। श्रीनगर के इस दूरदराज के गाँव में बहुत से पशु हैं, जिनका दूध शहरी क्षेत्रों में हर दिन बेचा जाता है। ज्यादा मात्रा में दूध की आपूर्ति होते देखकर, दूसरों की तरह खटाना ने घी बनाना शुरू कर दिया।
कश्मीर के पशुपालन विभाग की निदेशक, पूर्णिमा मित्तल कहती हैं – “प्रतिदिन 70 लाख लीटर दूध के उत्पादन में से, 40 लाख लीटर दूध कश्मीर में और 30 लाख लीटर जम्मू में पैदा होता है।”
ओडिना गांव में, शकीला और उनके पति मोहम्मद जफर भट, पनीर बनाने का एक सफल व्यवसाय चलाते हैं, जिसे स्थानीय लोग ‘चमन’ कहते हैं। वह याद करती हैं – “पहले जब हम दूध को ऐसे ही बेचते थे, तो हमें आजीविका के लिए संघर्ष करना पड़ता था।”
शुरू होने के दो साल के भीतर, जाफर परिवार अब आस-पास के गांवों के पशुपालक परिवारों से इकठ्ठा किए अतिरिक्त दूध से रोज लगभग 300 किलोग्राम ‘चीज़’ और पनीर का उत्पादन करता है।
शकीला की तरह बहुत से पशुपालक हैं, जो दूध के मूल्यवर्धन से और विभिन्न प्रकार के दुग्ध पदार्थों के उत्पादन से ज्यादा पैसा कमा रहे हैं।
दही बेचना शुरू करने के बाद, अब्दुल अहद भट 25% ज्यादा आमदनी प्राप्त करते हैं।
घरेलू उत्पादों की बढ़ती मांग
राज्य के पशु, भेड़पालन एवं मत्स्य पालन विभाग के मुख्य सचिव, नवीन चौधरी के अनुसार, ग्रामीणों में मूल्यवर्धित दुग्ध पदार्थों के बेचने का यह चलन करीब चार साल पहले शुरू हुआ था।
स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ने से, प्राकृतिक घर में बने उत्पादों की मांग बढ़ी है।
श्रीनगर की ज़ूना बेगम कहती हैं – “स्थानीय रूप से बनाया गया पनीर स्वादिष्ट होता है और इसमें खट्टा स्वाद नहीं होता।”
घी बनाने वाले, खटाना का कहना था कि बड़ी संख्या में उनके ग्राहक, घर के बने डेयरी उत्पाद पसंद करते हैं।
वह कहते हैं – “आमतौर पर सुबह एक घंटे के भीतर, घर का बना दही और मक्खन का मेरा पूरा स्टॉक बिक जाता है।” क्योंकि बाजार में घी और मक्खन की कमी है, इसलिए वह मांग में वृद्धि पाते हैं।
चौधरी कहते हैं – “राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में डेयरी क्षेत्र का योगदान अमूल्य है। यह क्षेत्र कई तरह से मदद करता है, जैसे कृषि में काम के लिए पशु-शक्ति (खेती उपकरण खींचने वाले जानवर), जैविक खाद और दुग्ध पदार्थों से नियमित रूप से नकद आय प्रदान करना।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?