माजुली द्वीप के कुम्हारों की 500 साल पुरानी विरासत खतरे में है, क्योंकि ब्रह्मपुत्र नदी धीरे-धीरे उनकी जमीन को निगल रही है। विडंबना यह है कि अगली पीढ़ी की कला में रुचि की कमी की तो बात ही क्या, कटाव रोकने के उपाय भी कुम्हारों के संकट को बढ़ा रहे हैं।
माजुली द्वीप के सलमोरा गांव में रहने वाली एक 75-वर्षीय महिला कुम्हार, मैजोन बोरा कहती हैं – “नया साल दुनिया भर के लोगों के लिए नई उम्मीदें और आकांक्षाएं लेकर आता है। लेकिन हमारे लिए नहीं। हम सिर्फ एक-एक दिन के लिए जीते हैं और आगे के बारे में नहीं सोचते, क्योंकि हमारा अस्तित्व दांव पर है।”
असम के माजुली द्वीप का सलमोरा गाँव कुम्हारों के गाँव के रूप में लोकप्रिय है, क्योंकि यहाँ के 600 परिवार पिछले 500 सालों से मिट्टी के बर्तनों का काम करते हैं। वे ज्यादातर त्योहारों के लिए तेल के छोटे दीये और मिट्टी के मटके बनाते हैं, जिनका असम में पानी और चावल से बनी पारम्परिक बीयर के भंडारण के लिए उपयोग किया जाता है।
ज्यादातर कुम्हार महिलाएं हैं, क्योंकि स्थानीय पुरुष आमतौर पर अपनी आजीविका कमाने दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।
553 वर्ग किलोमीटर में फैला, माजुली ब्रह्मपुत्र नदी से घिरा हुआ है, जिसे “असम का शोक” कहा जाता है। नदी की उग्र प्रकृति ने लंबे समय में भूमि के विशाल हिस्सों को निगल लिया है, जो कभी मानव बस्तियां और कृषि क्षेत्र हुआ करते थे।
इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि सलमोरा गांव भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। इस कारण ग्रामवासियों को पिछले कुछ दशकों में कई बार जगह बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा है, जिससे उनकी आजीविका प्रभावित हुई है।
नदी में समाई भूमि
मैजोन बोरा कहती हैं – “हर गुजरते दिन के साथ नदी करीब आ रही है और जल्दी ही यह हमें एक भूखे राक्षस की तरह निगल जाएगी।”
वह कहती हैं – “हमारे घर 1950 से कम से कम 10 बार पानी के अंदर चले गए हैं, जिससे हर बार हमें अपने घरेलू सामान और बच्चों को लेकर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। कभी-कभी, जब पानी तेजी से सब कुछ हजम करता दिखा और हम अपने बच्चों को बचाने की कोशिश कर रहे थे, तो नदी हमारी बचत को निगल गई।”
स्थानीय लोगों के लिए वैकल्पिक आजीविका प्रदान करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन, ‘साउथ एशियन फोरम फॉर एनवायरनमेंट’ (SAFE) के अनुसार, पिछले सात दशकों में कटाव के कारण लगभग 700 वर्ग किलोमीटर इसमें चला गया है।
SAFE के फील्ड को-ऑर्डिनेटर, सबेन कलिता का कहना था कि राज्य प्रशासन द्वारा नदी के किनारे मिट्टी से भरे बोरे रखने और ‘पोर्कुपाइन्स’ (साही) नामक कंक्रीट के त्रिकोणीय ढांचे खड़े करने जैसे कुछ उपाय किए जाने के बाद, कटाव की तेजी थोड़ी कम हुई है।
कलिता कहते हैं – “लेकिन फिर भी कटाव को पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता।”
बर्तन बनाने की मिट्टी पहुंच से बाहर
लेकिन माजुली को बचाने के प्रशासन के उपायों ने कुम्हारों की दुर्दशा को बढ़ा दिया है।
42-वर्षीय महिला कुम्हार, बुलु भुइयां ने कहा – “प्रशासन ने कटाव को रोकने के लिए, नदी के किनारे से मिट्टी लेने पर रोक लगा दी है।”
जो मिट्टी आसानी से उपलब्ध थी, अब एक महंगी वस्तु बन गई है। इसे कुम्हारों को अब नदी के उस पार के अन्य जिलों से लाना पड़ता है, जिससे लागत बढ़ जाती है।
बुलु भुइयां कहती हैं – “आजीविका के दूसरे अवसरों के अभाव में, हम किसी तरह जीवित रहने और अपने सदियों पुराने व्यवसाय को जारी रखने की कोशिश करते हैं।”
कुम्हारों का कहना था कि महामारी के साथ-साथ महंगाई ने उन्हें एक जोरदार झटका दिया है।
कुम्हार मदन मोहन बोरा (78) ने कहा – “मिट्टी के सामान बनाने में इस्तेमाल होने वाली लकड़ी, ईंधन और अन्य कच्चे माल की लागत पिछले कुछ महीनों में कई गुना बढ़ गई है, जिससे हमारा मुनाफ़ा कम हो गया है। यह अब केवल जीवित रहने की बात है और इससे आगे कुछ नहीं।”
लुप्त होती परम्परा
कुम्हार समुदाय के लिए भविष्य विकट प्रतीत होता है, क्योंकि युवा अपनी विरासत को आगे बढ़ाने के इच्छुक नहीं हैं।
बुलू भुइयां की बेटी, मालविका भुइयां (18) कहती हैं – “मैं मिट्टी के सामान बनाने की बजाय किसी शहर में नौकरी करना पसंद करूंगी, जिससे शायद ही कोई लाभ होता है। मैंने अपनी माँ को रोज कई घंटे कड़ी मेहनत करते देखा है, लेकिन उनकी मजदूरी के बराबर आमदनी नहीं है। बिना लाभ के कीचड़ में घंटों बिताने की बजाय, अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी ढूंढना बेहतर है।”
एक कुम्हार, दीपाली हजारिका (40) ने अफसोस जताया – “कटाव को रोकने के लिए सरकार के उपाय काफ़ी नहीं हैं। हम असहाय और बेचारे लोगों की तरह बैठ कर इंतजार कर रहे हैं।”
मिट्टी के कटाव को नियंत्रित करने वाले ब्रह्मपुत्र बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना था कि उन्होंने माजुली को बचाने के लिए भरपूर उपाय किए हैं।
बोर्ड के कार्यकारी अभियंता, ए के डेका कहते हैं – “हम उन किनारों पर मिट्टी से भरे बोरे लगा रहे हैं, जो तेजी से कट रहे हैं। हमने नदी तट से टकराने वाले पानी के वेग को कम करने के लिए, कंक्रीट के पोर्कुपाइन्स (साही) लगाए हैं। हर मानसून के बाद मिट्टी भरे बोरे बदले जाते हैं, क्योंकि उनमें से ज्यादातर बह जाते हैं।”
लेकिन कुम्हार चिंतित हैं।
उन सभी ने अफ़सोस के साथ स्वीकार किया कि वह समय निकट आ रहा है, जब सलमोरा की समृद्ध विरासत खो जाएगी।
मैजोन बोरा कहती हैं – “यहां जीवित रहना हर रोज एक चुनौती रही है। नया साल हमारे जीवन में शायद ही कोई बदलाव लाएगा। नदी सिर्फ कुछ और करीब आ जाएगी।”
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