“मेरी वर्षों की सारी मेहनत बर्बाद हो जाएगी”
"भारत के जीवित धान जीन बैंक" कहे जाने वाले, कुरिचिया आदिवासी किसान, चेरुवायल रमन, अपने बीज संग्रह के लिए बेताबी से एक भवन खोज रहे हैं, ताकि स्वदेशी किस्मों को संरक्षित और प्रचारित किया जा सके।
"भारत के जीवित धान जीन बैंक" कहे जाने वाले, कुरिचिया आदिवासी किसान, चेरुवायल रमन, अपने बीज संग्रह के लिए बेताबी से एक भवन खोज रहे हैं, ताकि स्वदेशी किस्मों को संरक्षित और प्रचारित किया जा सके।
देशी चावल की किस्मों को बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के लगभग 10 साल बाद, कुरिचिया आदिवासी किसान चेरुवायल रमन को चिंता है कि उनके जीवन भर का काम व्यर्थ चला जाएगा।
रमन को 2013 में ‘पौधों की किस्मों के संरक्षण एवं किसान अधिकार प्राधिकरण’ (PPVFRA) से देशी चावल की किस्मों के संरक्षण के लिए ‘जीनोम सेवियर अवार्ड’ मिला।
दुनिया भर के चावल-शोधकर्ता उनका भारत के “जीवित धान जीन बैंक” के रूप में सम्मान करते हैं। उन्हें ब्राजील में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में भी आमंत्रित किया गया था।
लेकिन पुरस्कार मिलने के लगभग 10 साल बाद, 71-वर्षीय आदिवासी किसान को विश्वास नहीं है कि उनके स्वदेशी बीज-संग्रह को संरक्षित किया जाएगा या नहीं।
स्वास्थ्य संबंधी कई झटकों के बाद, यह स्पष्ट नहीं है कि भविष्य में उनके बीज संग्रह की देखभाल कौन करेगा।
केरल के वायनाड जिले के कम्माना गाँव निवासी, रमन, दशकों से चावल की 56 देशी किस्मों को संरक्षित और प्रचारित करते रहे हैं।
इस जैविक किसान ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “मैं इनका संरक्षण आने वाली पीढ़ियों के लिए कर रहा हूँ।”
हालांकि उन्होंने केवल पांचवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, लेकिन धान की खेती और देशी चावल की किस्मों के बारे में उन्हें व्यापक जानकारी है।
वह कहते हैं – “स्वदेशी बीज, संकर बीजों के मुकाबले बीमारियों और जलवायु परिवर्तन समस्याओं के प्रति अधिक प्रतिरोधी होते हैं। वह लम्बे समय तक रखे जा सकते हैं।”
एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन के वायनाड स्थित सामुदायिक कृषि जैव विविधता केंद्र के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक, प्रजीश परमेश्वरन के अनुसार, जहाँ कई जनजातियों ने धान की खेती बंद कर दी और नकदी फसलों पर ध्यान केंद्रित कर लिया, वहीं उन्होंने इसे जारी रखा।
परमेश्वरन कहते हैं – “इस पीढ़ी को चावल की इन किस्मों को संरक्षित करने की जरूरत को नहीं समझती है।”
जब किसानों ने संकर किस्मों, या काली मिर्च, कॉफी और इलायची जैसी नकदी फसलों की ओर रुख किया, तो वायनाड की 160 देशी धान की किस्मों में से ज्यादातर गायब हो गई थी।
केरल कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक, मारीन अब्राहम ने कहा – “वायनाड में धान की पारम्परिक खेती विभिन्न कारणों से घट गई, जिनमें एक कारण यह भी था कि कम उपज वाली किस्मों को अपनाने वाला कोई नहीं था।”
रमन के पास उन बीजों की एक छपी हुई सूची है, जिनका वह संरक्षण कर रहे हैं। कुछ 500 साल से ज्यादा पुरानी हैं।
उनके द्वारा संरक्षित चावल की सबसे प्रमुख किस्मों में चेन्नेलु, थोंडी, वेलियान, कल्लाडियारन, मन्नू वेलियान और चेम्बाकम के साथ-साथ सुगंधित चावल की किस्में, गंधकशाला, जीरकशाला और कयामा शामिल हैं।
उनका अधिकांश संग्रह वायनाड से है, जो पहले “वायल नाडु”, यानि “चावल के खेतों की भूमि” कहा जाता था।
लेकिन दुर्लभ और देशी किस्मों को इकट्ठा करने के लिए उन्होंने न सिर्फ केरल, बल्कि कर्नाटक और तमिलनाडु की भी यात्रा की है।
(यह भी पढ़ें: बंगाल के किसानों ने जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध विरासत-चावल का संरक्षण किया)
तिरुवनंतपुरम-स्थित कृषि विशेषज्ञ, एस. उषा ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “रमन का अस्तित्व और संरक्षण अभिन्न हैं।”
जैविक खेती के जुनूनी रमन के अनुसार, कृषि कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं है। इसके कारण, उन्हें सालाना लगभग 70,000 रुपये का नुकसान होता है।
उषा कहती हैं – “वह लाभ-उन्मुख नहीं हैं। वह आदर्शवाद और खेती का एक दुर्लभ मिश्रण हैं।”
तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के बहुत से किसान उनसे नियमित रूप से बीज लेते हैं। वह खुशी-खुशी उन्हें बिना पैसे लिए दे देते हैं, इस शर्त पर कि वे फसल कटाई के बाद उतनी ही मात्रा वापस लाएं।
रमन कहते हैं – “मेरा ध्यान इन बीजों के संरक्षण पर इतना ज्यादा केंद्रित था, कि मैं भूल गया कि मेरे परिवार को भोजन की जरूरत है। कोई भी मुझ पर विश्वास नहीं करेगा। लेकिन हम अक्सर अपने खाने के चावल के लिए सरकार के राशन पर निर्भर रहते थे।”
“देशी चावल के संरक्षण पर मेरा ध्यान इतना ज्यादा और बिना पैसे की परवाह किए था, कि चावल उत्पादक होने के बावजूद, मैंने और मेरे परिवार ने सरकार के राशन का चावल खाया।“
रमन और उनकी पत्नी गीता, विरासत में मिली 40 एकड़ जमीन के मालिक हैं।
रमन कहते हैं – “यह खेत हमारी पारम्परिक किस्मों के संरक्षण के लिए मेरी प्रयोगशाला रही है। मैंने अपने चावल के खेत की मिट्टी और कीचड़ भरे पानी से सबक सीखे हैं।”
आर्थिक झटकों के बावजूद, परिवार चावल की किस्मों को संरक्षित करने का प्रयास कर रहा है।
गीता ने कहा – “हमने देशी चावल की किस्मों के संरक्षण के लिए थोड़ी जमीन अलग रखी है।”
उनके बेटे, रमेसन और राजेश, और बेटियों रमानी और रजिता ने, अपने खेत को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट दिया है, ताकि चावल की प्रत्येक किस्म की खेती उसकी मौलिकता और चरित्र को खोए बिना की जा सके।
लेकिन रमन इस जीन बैंक के भविष्य को लेकर आशंकित हैं।
हमेशा चावल जीन बैंक को संरक्षित और प्रचारित करने के लिए, रमन, एक स्थायी सुविधा का सपना देखा है।
वह कहते हैं – “शायद मैं ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहूंगा। कुरिचिया प्रथा के अनुसार, मेरे बाद भूमि मेरी बहनों के बच्चों को मिलेगी। यहां तक कि मेरी पत्नी की भी मेरी मृत्यु के बाद कोई हिस्सेदारी नहीं होगी।”
उन्हें आशंका है कि वायनाड से बाहर रहने वाले विस्तारित परिवार के सदस्य, जिनका खेती के प्रति कोई झुकाव नहीं है, शायद बीज का संरक्षण न करें।
“वर्षों का मेरा सारा प्रयास व्यर्थ हो जाएगा,” यदि कोई रमन को उसके बीज बैंक को बचाने में मदद नहीं करता।
उनके 150 साल पुराने फूस की छत वाले घर में चावल के बीज की कई बोरियां हैं। रमन उन्हें किसी भी चावल अनुसंधान केंद्र, कृषि विश्वविद्यालय, गैर-सरकारी संगठन या इच्छुक व्यक्तियों को सौंपने के लिए तैयार हैं।
उषा कहती हैं – “विश्वविद्यालयों को पारम्परिक चावल की खेती के उनके व्यावहारिक ज्ञान को दर्ज और संरक्षित करना चाहिए।”
तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय में डॉ. के. रमैया जीन बैंक ने उनसे 30 किस्में खरीदी।
रमन ने कहा – ‘मैंने दिल्ली के एक शोध केंद्र को दर्जन भर किस्में दीं। लेकिन मैं औपचारिक जीन बैंकों में विश्वास नहीं करता। मैं वैज्ञानिक खेती के खिलाफ नहीं हूं। इससे ही गरीबी दूर होगी। लेकिन देशी किस्मों को संरक्षित करने का व्यावहारिक तरीका उनकी खेती है।”
जाने-माने वैज्ञानिक और राजनीतिक नेता उनके फार्म का दौरा कर चुके हैं। लेकिन रमन चाहते हैं कि इनका परिणाम भविष्य की पीढ़ियों के लिए जीन बैंक बनाए रखने के लिए, सरकारी हस्तक्षेप और पर्यावरण संस्थानों या गैर सरकारी संगठनों द्वारा सहायता के रूप में निकलना चाहिए।
वायनाड-स्थित लेखक और स्थानीय इतिहासकार, ओ. के. जॉनी कहते हैं – “रमन वायनाड जनजातियों की आखिरी पीढ़ी के नुमाइंदे हैं, जिन्होंने आर्थिक लाभ की चिंता किए बिना, अपने देशी चावल की किस्मों की रक्षा की। समाज को भविष्य की पीढ़ियों के लिए उनके काम को संरक्षित करना चाहिए।”
केए शाजी वायनाड-स्थित एक पत्रकार हैं, जो मानवाधिकार और पर्यावरण के मुद्दों पर लिखते हैं।
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