यह विलेज स्क्वायर की 2016 में शुरुआत से, 2021 में पुनः लॉन्च होने तक की जेंडर-संबंधित अंतर्दृष्टिपूर्ण कहानियों का एक संग्रह है। जेंडर से सम्बंधित हाल की कहानियों के लिए “उसका जीवन” अनुभाग देखें।
जेंडर
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कश्मीरियों ने पर्यावरण-ट्रैक्स की ओर रुख किया
महामारी के प्रभाव से चिंतन का अर्थ है कि ज्यादा कश्मीरी, कभी जिन पहाड़ियों को देख भर कर संतोष कर लेते थे, अब पर्यावरण ट्रैकिंग को अपनाकर वापिस पहाड़ों का रुख कर रहे हैं।
“मेरे शिष्य एक दिन ओलंपिक में खेलेंगे”
करुणा पूर्ति गरीबी और पूर्वाग्रह को हराकर राष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी बनीं। अब वह उन लड़कियों को कोचिंग देती हैं, जिनकी आंखों में वही सपना है, जो उन्होंने कई साल पहले देखा था। झारखंड के खूंटी जिले की करुणा पूर्ति के सफर की कहानी उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है।
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महिलाओं ने खरगोश पालन पर लगाया बड़ा दांव
खरगोश के मांस की भारी मांग और इसके पालन की लागत कम होने के कारण, नागालैंड में महिलाओं के लिए खरगोश पालन सबसे आकर्षक और लाभदायक व्यवसायों में से एक बन रहा है।
“मेरी बेटी ठंडी और निश्चल थी”
महामारी के दौरान, वाराणसी के बाहरी इलाके में रहने वाली शिंटू जब गर्भवती हुई, तो उसका वजन कम था और वह एनीमिक (खून की कमी) थी। क्योंकि उसके पति की नौकरी चली गई, इसलिए उसने ठीक से भोजन नहीं खाया और समय से पहले एक बच्चे को जन्म दिया, जिसकी पांच महीने बाद मृत्यु हो गई। पढ़िए, शिंटू की कहानी उन्हीं के शब्दों में।
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कुरुम्बा कला को जीवित रखना
‘अला कुरुम्बा’ जनजातियों को कला के प्रति रुझान अपने पूर्वजों से विरासत में मिला, जो रोजमर्रा की जिंदगी शैलचित्रों (रॉक पेंटिंग) के रूप में व्यक्त करते थे। लेकिन जब ऐसे गिने-चुने कलाकार ही बचे हैं, वे इस सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को जीवित रखने के लिए बेताब हैं।
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सोने की तलाश में
वे जिस सोने को वे बर्तन के द्वारा इकठ्ठा करते हैं, उससे उनके जीवन में चमक नहीं आती। फिर भी, काम की कमी और खेती के लिए सीमित पानी होने के कारण, ग्रामीण सोने की तलाश में रहते हैं।
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महामारी में पैदा हुए कमजोर और असुरक्षित बच्चे
महामारी ने हाशिए पर रहने वाले बहुत से भारतीयों से स्वास्थ्य देखभाल और कभी-कभी भोजन की आपूर्ति तक बाधित होने पर, समस्या का खामियाजा ज्यादातर गर्भवती महिलाओं को उठाना पड़ा। उसकी कीमत अब उनके बच्चे चुका रहे हैं।
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समय से पहले बर्फबारी से नष्ट हुए सेब के बाग
असामयिक बर्फबारी से दक्षिणी कश्मीर के सेब के बागों को भारी नुकसान हुआ है।
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बाजार और सरकार द्वारा की गई गृह बीमा की अनदेखी
प्राकृतिक आपदाएं भारत को महंगी पड़ी हैं। इसका जवाब गृह बीमा हो सकता है, फिर भी यह बेहद कम संख्या में लिए जा रहे हैं। तरकीब को कौन नहीं देख पा रहा है - घर के मालिक, बीमा उद्योग या सरकार?