स्थानीय आजीविकाओं से शोषणकारी श्रम-तस्करी पर लगा अंकुश
गरीब ग्रामीणों को बंधुआ प्रवासी मजदूर बनने से रोकने के लिए, ओडिशा सरकार को, बिचौलियों से मुक्ति और बेहतर मजदूरी के साथ ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम सम्बंधी नए प्रयासों को मजबूत बनाना होगा।
गरीब ग्रामीणों को बंधुआ प्रवासी मजदूर बनने से रोकने के लिए, ओडिशा सरकार को, बिचौलियों से मुक्ति और बेहतर मजदूरी के साथ ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम सम्बंधी नए प्रयासों को मजबूत बनाना होगा।
चामरू पहाड़िया (60) ओडिशा के पलायन-प्रभावित जिलों में से एक, नुआपाड़ा के कोमना प्रशासनिक ब्लॉक के गांव टिकरपाड़ा से आते हैं। अपने गाँव में काम की कमी के कारण पहाड़िया इस साल जुलाई में, एक निर्माण-स्थल पर काम करने के लिए, अपने गाँव के कुछ मजदूरों के साथ महाराष्ट्र में नागपुर गया था।
कुछ दिनों तक काम करने के बाद जब उन्होंने अपनी मजदूरी माँगी, तो उन दो बिचौलियों ने, जो पहाड़िया को अपने साथ नागपुर ले गए थे, उन्हें एक नशीला पेय पिला दिया। जब वह बेहोश हो गया, तो उन्होंने उनके दाहिने हाथ की तीन उंगलियां और दाहिने पैर की पांच उंगलियां काट दीं।
दोनों बिचौलिये पहाड़िया को नागपुर रेलवे स्टेशन पर छोड़ कर चले गए, जहाँ रेलवे पुलिस ने उन्हें बचा लिया और सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया। यह मुद्दा तब सामने आया, जब कुछ तंदरुस्त होने के बाद पहाड़िया अपने गाँव वापिस आया।
नुआपाड़ा जिले में प्रवास और मानव-तस्करी के मुद्दे पर काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता, आशीष कुमार जीत के अनुसार, पहाड़िया अपने गाँव में अकेले रह रहे थे और बुरे समय से गुज़र रहे थे, क्योंकि उनके गाँव में काम का कोई अवसर नहीं था।
ओडिशा सरकार अब तक मानने को तैयार नहीं थी, कि पहाड़िया जैसे ऐसे प्रवासी हैं, जिन्हें गंतव्य-राज्यों में जाने के बाद बंधुआ मजदूर बनाया जा रहा था। इस तरह की कुछ दुर्घटनाओं के बाद, सरकार ने अब बिचौलियों को पकड़ने और मनरेगा योजना के तहत स्थानीय स्तर पर काम देने के लिए कदम उठाए हैं।
मनरेगा, यानि ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005’, एक सामाजिक कल्याण कार्यक्रम है, जो सभी गरीब ग्रामीण परिवारों को हर साल 100 दिनों के काम की गारंटी देता है।
बुरे बर्ताव का शिकार प्रवासी
जीत ने VillageSquare.in को बताया – “अपने गाँव के अन्य लोगों की तरह, वह (पहाड़िया) भी जीवन यापन के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करना चाहता था। बिचौलियों ने उसकी संकट की स्थिति का फायदा उठाया। उन्होंने काम के लिए और उनका खाना पकाने के लिए उससे बेहतर मजदूरी का वायदा किया।”
एक अन्य घटना में, बलांगीर जिले के बेलपाड़ा ब्लॉक की पुंडरीजार पंचायत के गिदमल गांव के 35 वर्षीय बृंदाबन बरिहा और उनकी 30 वर्षीय पत्नी लियाबानी, अपने चार बच्चों के साथ पिछले सीजन में एक ईंट-भट्टे में काम करने के लिए तेलंगाना गए थे।
लेकिन कुछ महीनों के बाद, भट्टे की भारी धूल और धुएं के कारण, उनके सात महीने के बेटे को सांस की समस्या होने लगी। दम्पत्ति की दलीलों के बावजूद, सुपरवाइजर ने उन्हें बच्चे को अस्पताल ले जाने की इजाजत नहीं दी। उसने उन्हें उसी माहौल में अपना काम जारी रखने के लिए मजबूर किया।
एक सामाजिक कार्यकर्ता, सुरेंद्र छेत्रिया, जो कि बलांगीर में प्रवास और मानव-तस्करी के मुद्दे पर काम करते हैं, ने VillageSquare.in को बताया – “जब बरिहा के बेटे ने दम तोड़ दिया, तो उन्हें बच्चे का वहीं दाह संस्कार करने के लिए मजबूर किया गया, क्योंकि मालिक ने उन्हें घर जाने की अनुमति नहीं दी। बृंदाबन और लियाबानी का दिल टूट गया, क्योंकि वे अपने इकलौते बेटे को बचा नहीं सके।”
बंधुआ मजदूर प्रमाण-पत्र
मजदूरों के अधिकारों पर काम करने वाले, कालाहांडी जिले के कार्यकर्ता दिलीप दास बताते हैं – “इन प्रवासियों में से अधिकांश को, इन ईंट-भट्टों में बंधुआ मजदूर के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। लेकिन सरकार ने कभी स्वीकार नहीं किया कि ये बंधुआ स्थिति में काम करते हैं। इसीलिए जब उन्हें बचाया गया, तो उन्हें बंधुआ मजदूर प्रमाण-पत्र प्रदान नहीं किया गया था।“
दास ने बंधुआ मजदूर पुनर्वास अधिनियम के अंतर्गत, 2014 से अब तक पहाड़िया सहित, लगभग 170 याचिकाएं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के पास दायर की हैं, ताकि बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास सुनिश्चित किया जा सके। वह कहते हैं – “आज तक केवल कुछ को ही मुआवजा प्राप्त हुआ है, क्योंकि उनमें से अधिकांश को बंधुआ श्रमिक प्रमाणपत्र जारी नहीं किया गया था।“
आजीविका का अभाव
दास ने VillageSquare.in को बताया – “प्रमाण पत्र के बिना, मजदूरों को अपने जीवन को दोबारा पटरी पर लाने के लिए जरूरी 20,000 रुपये का मुआवजा नहीं मिल सकता है। इसलिये, अगले साल फिर वे एक बंधुआ मजदूर के रूप में काम करना स्वीकार कर लेते हैं।” प्रशासन ने घोषणा की, कि पहाड़िया को रेड क्रॉस फंड से उनके इलाज के लिए 20,000 रुपये प्रदान किए जाएंगे, लेकिन उन्हें अभी तक पैसे नहीं मिले हैं।
हालांकि एक कार्यवाही के दौरान बरिहा दंपति को बचा लिया गया था, लेकिन उन्हें बंधुआ मजदूर प्रमाण-पत्र नहीं दिया गया था। इसलिए, वे किसी भी मुआवजे के लिए पात्र नहीं हैं। छेत्रिया ने बताया – “अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अब बृन्दाबन गांव में ही एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं और उनकी पत्नी लियाबानी भी मजदूरी करती हैं। उन्होंने अपना पिछ्ला कर्ज़ उतारने के लिए पलायन किया था। अपने बेटे को खोने के बाद, वे फिर से पलायन नहीं करना चाहते।”
गरीबी, जलवायु परिवर्तन का असर और काम की कमी के कारण, बलांगीर, कालाहांडी, नुआपाड़ा और बरगढ़ जिलों के इन गरीब और वंचित लोगों को काम के लिए दूसरे राज्यों में पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है। सामाजिक संगठनों द्वारा किए एक अनौपचारिक आँकलन से पता चलता है, कि हर साल लगभग 3,00,000 लोग पलायन-ग्रस्त पश्चिमी जिलों से पड़ोसी राज्यों के ईंट-भट्टों में काम करने के लिए पलायन करते हैं। इसी तरह पड़ोसी जिलों, बौध और सोनपुर के गरीब और वंचित लोगों ने भी ईंट भट्ठों और निर्माण के स्थानों में पलायन करना शुरू कर दिया है।
सक्रिय पुलिस
इस साल अक्टूबर में, पहली बार, ओडिशा पुलिस ने नुआपाड़ा और बलांगीर जिलों से अवैध मानव-तस्करी में लिप्त 41 बिचौलियों और एजेंटों को गिरफ्तार किया। एक प्रेस विज्ञप्ति में, पुलिस विभाग ने कहा कि गिरफ्तारियां, अवैध मानव-तस्करी के खिलाफ सरकार द्वारा हाल ही में चलाए गए अभियान का हिस्सा हैं।
बलांगीर जिले के बंधुआ मजदूर केनालू मल्लिक की हाल ही में एक गंतव्य-स्थल पर बंधक बनाए जाने के दौरान हुई मौत ने पुलिस को इन बिचौलियों और एजेंटों को पकड़ने के लिए मजबूर किया।
दास के अनुसार – “यह एक सकारात्मक संकेत है, क्योंकि सरकार ने कभी स्वीकार ही नहीं किया था कि इन जिलों में मानव तस्करी हो रही है। यह उन अन्य बिचौलियों और एजेंटों के बीच एक डर पैदा करेगा, जो इन जरूरतमंद लोगों को फुसला कर दूसरे राज्यों में ले जाते हैं और उनका शोषण करते हैं। सरकार को इस अभियान को अन्य दो जिलों में भी चलाना चाहिए, जहाँ मानव तस्करी का काम इसी तरह हो रहा है।”
स्थानीय आजीविका के अवसर
दास कहते हैं कि मानव तस्करी में फंसने से बचाने के लिए सरकार को, ग्रामीणों के लिए अपने ही गांवों में काम के अवसर पैदा करने चाहिए। नियमित रूप से काम न मिलने, अनियमित मजदूरी भुगतान और भ्रष्टाचार ऐसे कारण हैं, जो ग्रामीणों के महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के तहत काम करने में बाधक हैं।
दास VillageSquare.in को बताते हैं – “सरकार को गाँवों में मनरेगा के तहत अधिक काम देने की जरूरत है और मजदूरों को काम खत्म करने के तुरंत बाद मजदूरी का भुगतान होना चाहिए। अन्यथा, मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी के हालात बने रहेंगे।”
प्रवासी मजदूरों के हालात को समझते हुए, राज्य सरकार ने इन चार जिलों में मजबूरी में किए जाने वाले पलायन को रोकने के लिए एक योजना बनाई है। 20 प्रशासनिक खंडों की 477 ग्राम पंचायतों के ग्रामवासियों को 150 दिनों की जगह 200 दिनों का काम मिलेगा और उन्हें श्रम-विभाग द्वारा तय मजदूरी के अनुसार भुगतान किया जाएगा।
इस समय मनरेगा के अंतर्गत, एक मजदूर को एक दिन के काम के लिए 188 रुपये मिलते हैं, लेकिन इस कार्यक्रम के लागू होने के बाद, उसे 286 रुपये 30 पैसे मिलेंगे। यदि यह कार्यक्रम पलायन-ग्रस्त जिलों में लागू हो जाता है, तो पहाड़िया और बरिहा जैसे ग्रामीणों को पलायन और बंधुआ जीवन से मुक्ति मिलेगी।
राखी घोष भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।